गुरुवार, 4 सितंबर 2008

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

'वेबदुनिया' से यह मसाला मैं ज्यों का त्यों उड़ा रहा हूँ. आप भी आनंद लीजिये. मुआफी चाहता हूँ कि कॉपी करते वक्त इसके संग्रहकर्ता का नाम कट गया. और अब बेहद ईमानदार कोशिश के बावजूद उनका नाम याद नहीं कर पा रहा हूँ. इरादा नेक है. और तबीयत दुरुस्त.

अब उन अनजाने दोस्त की लिखी भूमिका-

'हर शायर अपने हालात से मुतास्सिर होकर जब अपनी सोच और अपनी फ़िक्र को अल्फ़ाज़ का जामा पहनाता है तो वो तमाम हालात उसके कलाम में भी नुमायाँ होने लगते हैं। 1857 के इंक़िलाब के बाद जो हालात हिन्दुस्तान में रूनूमा हुए उनसे उस दौर का हर शायर मुतास्सिर हुआ। अकबर इलाहाबादी ने उन हालात का कुछ ज़्यादा ही असर लिया।

अपने मुल्क और अपनी तहज़ीब से उन्हें गहरा लगाव था। वो खुद अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे थे और अंग्रेज़ों की नौकरी भी करते थे। लेकिन इंग्लिश तहज़ीब को पसन्द नहीं करते थे। उन्हें ऐसा महसूस होने लगा था कि अंग्रेज़ धीरे-धीरे हमारी ज़ुबान हमारी तहज़ीब और हमारे मज़हबी रुझानात को गुम कर देना चाहते हैं।

इंग्लिश कल्चर की मुखालिफ़त का उन्होंने एक अनोखा तरीक़ा निकाला। मुखालिफ़त की सारी बातें उन्होंने ज़राफ़त के अन्दाज़ में कहीं। उनकी बातें बज़ाहिर हंसी-मज़ाक़ की बातें होती थीं लेकिन ग़ौर करने पर दिल-ओ-दमाग़ पर गहरी चोट भी करती थीं।'

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत हैं मगर आराम के साथ

चार दिन की ज़िन्दगी है कोफ़्त से क्या फ़ाएदा
खा डबल रोटी, कलर्की कर, ख़ुशी से फूल जा

शौक़-ए-लैला-ए-सिविल सर्विस ने इस मजनून को
इतना दौड़ाया लंगोटी कर दिया पतलून को

अज़ीज़ान-ए-वतन को पहले ही से देता हूँ नोटिस
चुरट और चाय की आमद है, हुक़्क़ा पान जाता है

क़ाइम यही बूट और मोज़ा रखिए
दिल को मुशताक़-ए-मिस डिसोज़ा रखिए

रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में
कि अकबर नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में

मज़हब ने पुकारा ऎ अकबर अल्लाह नहीं तो कुछ भी नहीं
यारों ने कहा ये क़ौल ग़लत, तन्खवाह नहीं तो कुछ भी नही

हम ऎसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बेटे बाप को खब्ती समझते हैं

शेख जी घर से न निकले और मुझसे कह दिया
आप बी.ए. पास हैं तो बन्दा बी.बी. पास है

तहज़ीब-ए-मग़रबी में है बोसा तलक मुआफ़
इससे आगे बढ़े तो शरारत की बात है

ज़माना कह रहा है सब से फिर जा
न मस्जिद जा, न मन्दिर जा, न गिरजा

अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ाई लड़ने का ये भी एक तरीक़ा था। ये तो वो कलाम है जो छप कर अवाम के सामने आया। अकबर के कलाम का एक बड़ा ज़खीरा एसा भी है जो शाए नहीं हुआ है। शाए न होने की एक अहम वजह उसका सख्त होना भी है।

पका लें पीस कर दो रोटियाँ थोड़े से जौ लाना
हमारा क्या है ए भाई, न मिस्टर हैं न मौलाना


ग़ज़ल : अकबर इलाहाबादी

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऎं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी-मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तवक्को बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुल्बुल हूँ मगर चारे की ख्वाहिश में
बना हूँ मिम्बर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर.



उम्मीद है उस पेशकर्ता की पेशकश आपको पसंद आयी होगी. शुक्रिया!

8 टिप्‍पणियां:

  1. webdunia ko dhanyavaad! isase behatar peshaksh aaj tak kisee ne naheen kee.

    जवाब देंहटाएं
  2. naam islie naheen bataan chaahata ki main khud in dinon door se webadunia se jud ha hoon.

    जवाब देंहटाएं
  3. विजयशंकरजी, सचमुच यह पेशकश बेहतरीन है। आपके बधाई और अनेक शुभकामनाएं। और हां, कबाड़खाना पर भी वेणु गोपाल का संस्मरण जानदार है। अभी वहीं से पढ़कर लौटा हूं। आशा है आपकी बेहतरीन प्रस्तुतियां लगातार पढ़ने को मिलती रहेंगी।

    जवाब देंहटाएं
  4. अकबर चचा का एक मेरी तरफ़ से भी:

    हुए इस क़दर मुअज्जिज़, कभी घर का मुंह न देखा
    कटी उम्र होटलों में, मरे अस्पताल जाकर

    बढ़िया है विजय भाई.

    जवाब देंहटाएं
  5. अशोक भाई, यह तो उनका आलीशान शेर है. अब यह पेशकश पूर्ण हुई. धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्‍दर, बहुत अच्‍छी पेशकर है, वि‍जय भाई.......
    काफी दि‍नों से आपको तलाश कर रहा था, आखि‍र आप मि‍ल ही गये।

    जवाब देंहटाएं
  7. बधाई वि‍जय भाई, इस सुन्‍दर पेशकश के लि‍ए..........

    जवाब देंहटाएं

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...