सोमवार, 19 मई 2008

पूँजीवाद का शास्त्रीय विधान है स्वार्थ-सिद्धि

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१५

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि न्यूयॉर्क के सौ संपन्न लोगों में बीस मानसिक रूप से विक्षिप्त हैं। अब आगे-

सामग्री-धर्म का तीसरा परिणाम है, हिंसा और निष्ठुरता का विकास। सामग्री और मनुष्य में कोई फ़र्क नहीं, इसलिए दूसरों के दुःख हमें दुखी नहीं कर पाते। सामग्री से मानवीय सम्बन्ध कैसे हो सकता है? छाते में जाते वक्त छाते को धूप या बारिश से तकलीफ़ होती है, यह क्षणिक सोच भी नहीं हो सकता है.

बाज़ार का नियम पालन करते हुए व्यक्ति को भूलना होता है, उसी तरह व्यक्ति को महत्त्व देने से बाज़ार के नियम नहीं चलेंगे. जिंस की तरह ही व्यक्ति का महत्त्व उसकी उपयोगिता ही निर्धारित करती है. तीसरे दर्जे का भाड़ा अदा कर अध्यापक अपनी विद्वता के लिए या रोगी अपनी लाचारी के लिए प्रथम श्रेणी की सुविधाएं नहीं पा सकता. गरीबों के लिए सस्ते में माल नहीं मिलेगा, यही बाज़ार का नियम है. जोन एटन के अनुसार-

'To consider only oneself and not one's neighbours is the economic law of the market Ideal of humanism and comradeship, if rewarded in heaven are not crtainly rewarded in our capital earth. So, a terrible contradiction tears men between their Ideals as human beings and the economic law of existence in the society, in which they find themselves.'

और इसी नियम की हमें आदत हो गयी है। अधिकांश समाज का जीवन तकलीफ़ से गुज़रता है, यदि वे अनाहार या बगैर इलाज से कीड़े-मकौडों की तरह मरते जाते हैं, पेड़ों के तले रहने को बाध्य होते हैं, अगर उनके बच्चे अनपढ़ रहते हैं, तो हमें जिम्मेदारी की थोड़ी-सी भी अनुभूति नहीं होती है. हमें लगता ही नहीं कि हम किसी पर कोई अत्याचार करते हैं, ऐसा भी नहीं लगता कि कहीं न कहीं हम शोषण में सहायक हो रहे हैं, सिर्फ़ क़ानून-सम्मत बाज़ार के नियम मान कर चलते हैं.

प्राचीनकाल में शास्त्रीय विधान से सामाजिकता निर्धारित होती थी। व्यक्तिगत प्रतिभा के अनुसार उस शास्त्रीय विधान की व्यवस्था और प्रयोग का अधिकार नहीं था। हिन्दू मानते थे ब्राह्मण अवध्य है और मुसलमान सूद को महापाप समझते थे. ऐसी अनेक प्रथाएं थीं, जिनके तार्किक होने के बारे में विचार करने की स्वाधीनता नहीं थी. लेकिन इन नीतियों का उल्लंघन असंभव था.

उस युग में शास्त्रीय विधान की जो मर्यादा थी, बुर्जुआ समाज में बाज़ार के नियम का वही स्थान है। इस विधान में अगर ब्राह्मण-वध लाभदायक है तो वह भी हो सकता है. ब्राह्मण ही क्यों, मुनाफ़े के लिए, वह थोक में नर-हत्याएं कर सकता है, खाने की चीजों में मिलावट कर सकता है, कर-चोरी भी करता है, कुल मिलाकर मनमानी कर स्वार्थसिद्धि करना ही पूँजीवाद का शास्त्रीय विधान समझा गया है.

इस विधान के पालन में व्यक्ति से टक्कर भी होती है। तब भी इसी नियम से साम, दाम. दण्ड, भेद से अपने स्वार्थ साधेगा, ताकत होगी तो विजयी होगा. इससे अलग दूसरी कोई नीति बुर्जुआ समाज की नहीं होती, क़ानून के रंगीन परदे तो इस नीति की ओट मात्र हैं. वैसे ही व्यापार भी होता है. बारिश होने पर धूप नहीं रहने की तरह किसी प्राकृतिक नियम से कुछ नहीं होता है. माल की आमद कम होने से ही बाज़ार-भाव ऊंचा होने लगता है. व्यवसायी, उपभोक्ता की लाचारगी का फ़ायदा उठाते हैं.

आधुनिक शासकों के चरित्र के बारे में सरोकिन ने कहा है- 'बेल्जियम से निरपेक्ष रक्षा के संधिपत्र को रद्दी के कागज़-सा फाड़ कर जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण करते हुए प्रथम विश्व-युद्ध का सूत्रपात किया था। फ़िर तो अन्तरराष्ट्रीय समझौते तोड़ने की बाढ़-सी आ गयी. समझौते की स्याही सूख भी नहीं पाती थी कि समझौते तोड़ दिए जाते थे. वर्साई संधि का निरीक्षण होने से पहले ही हस्ताक्षर करने वाले उसमें परिवर्त्तन की मांग करने लगे. फ़िर तो अन्तरराष्ट्रीय संधियों से मुकरने की होड़-सी लग गयी. प्राच्य और पश्चिमी राष्ट्र लगातार संधियाँ तोड़ते गए.'

द्वितीय विश्वयुद्ध में भी यही हाल रहा। हर सरकार सिर्फ़ समझौते ही नहीं तोड़ती थी, अन्तरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करने में भी माहिर रही. तानाशाह या लोकतंत्र- सभी का एक ही हाल था.

अगली कड़ी में जारी...
'पहल' से साभार, मूल आलेख (बांग्ला) : राधागोविंद चट्टोपाध्याय, अनुवाद: प्रमोद बेडिया.

1 टिप्पणी:

  1. प्रत्येक अवगुण का सदुपयोग है। इसी प्रकार स्वार्थ का भी सदुपयोग है।
    रही बात छिद्र ढ़ूंढ़ने की - सब जगह ढ़ूंढ़े जा सकते हैं। सब वाद चलनियां हैं - बहत्तर छेद वाली!

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