रविवार, 27 जनवरी 2008

मंगलेश डबराल की हिन्दी ब्लॉगघुट्टी



नभाटा
में अग्रज कवि एवं वरिष्ठ पत्रकार मंगलेश डबराल का हिन्दी ब्लॉग की दुनिया पर लिखा मुख्य आलेख पढा. मैं मंगलेश जी की कविताओं का मुरीद हूँ. उनकी चिंताएं वाजिब हैं. इस आलेख में उन्होंने आगे का एजेंडा तय करने की कोशिश की है, जो उन जैसे प्रबुद्ध एवं चिंतनशील कवि से उम्मीद की जा सकती है. आलेख से यह भी जाहिर होता है कि हिन्दी ब्लॉग जगत पर वह बराबर नज़र बनाए हुए हैं.
इस तथ्य से उन ब्लॉगवीरों को सतर्क हो जाना चाहिए जो जंगल में मोर की तरह नाचने के भरम में हैं और ढीले-ढाले तौर पर बकवाद किया करते हैं। बड़े-बड़े लोग उनका नृत्य देख रहे हैं.

हिन्दी ब्लोगों को हिन्दी समाज की सांस्कृतिक शक्ति बनते देखना मंगलेश जी का सपना है। लेकिन इसमें अनेक अड़चनें हैं. पहली तो यही कि हिन्दी समाज को पढ़ने-लिखने से सत्व ग्रहण करने की आदत नहीं रही. जिन थोड़े लोगों को है वे साधनहीन हैं. उनकी क्रयशक्ति अनुमति नहीं देती कि वे पीसी, लैपटॉप खरीदने तथा इंटरनेट के खर्चे का भार उठा सकें. अधिकांश लोगों को यही नहीं पता कि यह ब्लोगिंग है क्या बला! अभी यह चंद शहरियों का खेल है, जिनमें मैं भी शामिल हूँ.

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शहरों में भी अभी हिन्दी ब्लोगों के वैसे पाठक नहीं बने हैं जिनसे मंजर बदलने में मदद मिल सके। अभी स्थिति लघु-पत्रिकाओं वाली ही है. जो छपता है वही पढ़ता है. फिलहाल हिन्दी ब्लोगरों का हाल कुछ-कुछ ऐसा ही है कि- 'तू मेरा हाज़ी बिगोयम, मैं तेरा काज़ी बिगो'. लोग पोस्ट बाद में लिखते हैं, पहले गणित लगाते हैं कि कितने लोग पढ़ेंगे और कौन-कौन टिप्पणी कर सकता है. यह भी कि फ़लां से टिप्पणी करवाने के लिए फ़लां पर टिप्पणी करो, वगैरह-वगैरह.

अमेरिका की बात और है। वहाँ तो लगभग सारा समाज पेपरलेस बन चुका है. भारत में लोग अखबार तक ठीक से नहीं पढ़ते, ऐसे में जनता से ब्लॉग पढ़ने की कल्पना बेमानी है. और जो लोग संसद तथा विधानसभाएं चलाते हैं उनके हिन्दी ब्लॉग पढ़ने की संकल्पना 'साइंस फिक्शन' ही कही जायेगी.

ऐसे में मंगलेश जी की यह सलाह काम की लगती है कि हिन्दी ब्लॉग जगत को शनैः शनैः मुख्य मीडिया के निरंतर एवं स्थायी रूप में ख़ुद को ढालने की कोशिश करनी चाहिए। उससे भी महत्त्व की बात यह है कि ब्लोगों को सांस्कृतिक विस्मरण के विरुद्ध काम करना चाहिए. लेकिन दुःख की बात है कि जिनसे कुछ गंभीर की उम्मीद है वही 'चिरका' करने में मुब्तिला हो गए.

मंगलेश जी की एक बात से मैं असहमत होना चाहता हूँ। हिन्दी ब्लोगों पर बाबरी मस्जिद शाहदत की पंद्रहवीं बरसी पर कविता नहीं है या लेख नहीं हैं या ओर्तीज की कवितायें नहीं हैं, इसलिए ब्लॉग कहाँ कमतर हो जाते हैं? यह डिमांड है. 'टूटी हुई बिखरी हुई' पर वह चले जाएं तो उन्हें वहाँ अर्जेंटीना के कवि रोबर्तो हुआरोज मिलेंगे, वाल्ट ह्विटमैन मिलेंगे, यूगोस्लाविया के अद्भुत कवि वास्को पोपा मिलेंगे, 'कबाड़खाना' अगर वह और कबाड़ते तो वहाँ उन्हें एना गेब्रियल से लेकर ख़ुद नेरूदा तथा उनके बाद चिली के सबसे प्रभावशाली कवि निकानोर पार्रा मिल जाते. संगीत सुनाने के लिए छन्नूलाल मिश्रा से लेकर ट्रेसी चैपमैन और कुमार गन्धर्व सब उपस्थित हैं.

'मोहल्ला' में अविनाश भाई ने ऐसे-ऐसे लोकगीत सुनवाये हैं कि मंगलेश जी को अपने बचपन के मेले-ठेलों की याद ताज़ा हो जायेगी। 'झुलनी का रंग साँचा', 'पनिया के जहाज से पलटनिया बनि आइहा पिया॥; 'हमारा बलमवा किसान'.. क्या-क्या गिनाऊँ!

निर्मल-आनंद वाले अभय तिवारी के पास रूमी की शायरी का अनमोल खज़ाना है और कमाल की बात ये है कि यह उनका ख़ुद का अनुवाद किया हुआ है।दिलीप मंडल लगातार सार्थक और उत्तेजक ब्लॉग लेखन कर रहे हैं. अखबार से आगे समाचार को लाने की उनकी कोशिश रही है. यहाँ ब्लोगरों के नाम गिनाना उद्देश्य नहीं है. सभी तकनीकी चिट्ठे हिन्दी ब्लॉग चलाने वालों के लिए जैसे सांचे गढ़ने का काम करते आए हैं. सामग्री की फेहरिस्त लम्बी है। यहाँ मैं मंगलेश जी की मूल चिंताओं में पानी मिलाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ. हिन्दी ब्लॉग के जरिये जो परिवर्त्तन वह सम्भव देखते हैं, काबिल-ए-गौर है और अमल करने लायक़ भी.

माना कि यह हिन्दी ब्लॉग जगत का शैशवकाल है। यह भी मान लिया कि तमाम क्षेत्रों के महारथी रंगमंच पर अभी उतरे नहीं हैं. लेकिन उनके इंतज़ार में हम अपने शिशु को पोलियोग्रस्त या कुपोषण का शिकार होते तो नहीं देख सकते. वे जब आयेंगे तब आयेंगे, अभी तो इसे स्वस्थ ढंग से पालने-पोसने की जिम्मेदारी हम सबकी ही बनती है.

मंगलेश जी की नेकनीयती से राब्ता रखते हुए अगर हिन्दी ब्लोगिंग को एक सशक्त वैकल्पिक माध्यम बनाना है तो सबसे पहला प्रश्न हिन्दी ब्लॉगवीरों को अपने आप से ही करना होगा कि उनका ब्लॉग कोई क्यों देखे? हमारा ब्लॉग किस तरह पाठकों की सुरुचिपूर्ण आवश्यकता बन सकता है? प्रश्न करके तो देखिये, सवाल अपने आप मिलने लग जायेंगे.

1 टिप्पणी:

  1. विजय भाई , सारी बातों से सहमत हूं। बस यही कहना चाहता हू कि क्षेत्र विशेष के बड़े नाम आ भी जाएं तो क्या होगा , ज़रूरी तो नहीं वे यहां सफल हो जाएं या लोग उन्हें यहां पढ़ना पसंद करें।
    सच है, अभी तो शैशव ही है। सफर लंबा है और आशा जगानेवाला भी।

    जवाब देंहटाएं

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...