गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

रोशन-ख़याली की मिसाल थे बहादुरशाह ज़फ़र

'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' पुस्तक का जिक्र मैंने इसी ब्लॉग में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता-संयोजक और लेखक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने इसे लिखा है. इस भूमिका की यह आख़िरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)


(पिछली कड़ी से जारी)

...यह एक अजीब पर इतिहास का विषम तथ्य है कि जिस प्रतापमयी व्यक्तित्व ने अपना देश स्वतन्त्र करने के लिए संघर्ष किया उसकी लाश यथासमय एक विदेशी धरती में दफ़न है. हम और इस पुस्तक में लिखने वाले सभी लोग भारत सरकार से मांग करते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने वाले जियाले सपूतों के महानायक तथा सम्मान योग्य भारतीय सपूत के साथ न्याय किया जाए और उनकी लाश को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके पैतृक देश में लाकर दफ़न किया जाए. यह व्यक्तित्व निस्संदेह ही भारत के लिए गौरव का स्रोत है और स्वतन्त्र भारत को इसका आभारी और शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

सन् १८५७ की याद में आयोजित किए गए एक सौ पचास वर्षीय समारोह के अवसर पर उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर गुलज़ार ने लाल क़िला परिसर में हमारे मनोभाव का सीधा-सच्चा प्रतिनिधित्व करते हुए सरकार की ओर से आयोजित इस समारोह में यह इच्छा प्रकट की थी कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को वापस दिल्ली लाया जाए. भारतीय राष्ट्र के विभिन्न चिंतन-समूह के प्रतिनिधियों ने उनके विचारों की खुले मन-मस्तिष्क से प्रशंसा व सराहना की. खेद का विषय है कि इस बड़ी ऐतिहासिक ग़लती के सुधार के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया.

आने वाली पीढियाँ इस बात का निर्णय करती हैं कि राष्ट्र अपने शहीदों के प्रति किस प्रकार का बर्ताव करता है. इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो लगता है कि भारतीय जनता बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को भारत लाकर इस धरती में दफ़न करना चाहती है तथा उनके मज़ार पर उचित 'कत्बा' लगाना चाहती है परन्तु भारत के सत्ताधारी लोग इस 'जनमत' को महत्त्व नहीं दे रहे हैं

बहादुरशाह ज़फ़र हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी और पंजाबी भाषाएँ धारा-प्रवाह बोलते थे. उन्होंने इन भाषाओं में अनेक नज़्में, ग़ज़लें कही हैं. इनमें उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता का प्रबल शब्दों में समर्थन किया है तथा धार्मिक उन्माद, कट्टरता, घृणा और असहिष्णुता की खुली भर्त्सना व निंदा की है. आज भारत को ऐसे लोगों की बड़ी आवश्यकता है जो बहादुरशाह ज़फ़र जैसी सोच, व्यापक-हृदयता, सच्चाई और रोशन-ख़याली के प्रतीक हों. मौजूदा हालात में, जब धार्मिक कट्टरता से वातावरण दूषित किया जा रहा है बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व और कटिबद्धता से सहनशीलता के प्रचार-प्रसार की बड़ी आवश्यकता है.

मेरे पास शब्द नहीं और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं उन सब महानुभावों को कैसे धन्यवाद दूँ जिन्होंने इस पुस्तक के लिए अपने बहुमूल्य समय में से वक़्त निकालकर हमारे निवेदन पर लेख लिखे और अपने सुझाव भी दिए, मेरी सहायता की और साहस बढ़ाया.

साहिर शीवी और सैयद मैराज जामी की पत्रिका 'सफ़ीरे उर्दू' के द्वारा हमें बहुत से लेख प्राप्त हुए. 'सफ़ीरे उर्दू' का बहादुर शाह ज़फ़र विशेषांक मेरे ही निवेदन पर प्रकाशित किया गया था. बारह वर्ष पूर्व मोइनुद्दीन शाह साहब (मरहूम) ने अपनी पत्रिका 'उर्दू अदब' का बहादुरशाह ज़फ़र विशेषांक प्रकाशित कर ज़फ़र को श्रद्धांजलि दी थी. इस पुस्तक में कुछ लेख उल्लिखित विशेषांक से भी लिए गए हैं. अंत में उर्दू के विश्वसनीय लेखक व प्रकाशक 'खादिम-ए-उर्दू' (उर्दू-सेवक) प्रेमगोपाल मित्तल साहब की सेवाओं को भी नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की साज-सज्जा में अपना बहुमूल्य समय लगाया.(समाप्त)

-डॉक्टर विद्यासागर आनंद

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

पंडित नेहरू भी यही चाहते थे: सन्दर्भ ज़फ़र

(पहली कड़ी में चंद अभद्र प्रतिक्रियाएँ मिली थीं. आप कल्पना कर सकते हैं कि ब्लॉग जगत में मौजूद कुछ विशेष मानसिकता के लोगों से बचाव का एक ही तरीका है- टिप्पणी मोडरेटर. जिन लोगों को ज़फ़र या मुस्लिम कौम से नफ़रत है और उनके बारे में यहाँ लिखे जाने से परेशानी है उन्हें चाहिए कि वे मेरी स्वतंत्रता सेनानियों पर लिखी गयी सीरीज इसी ब्लॉग पर ढूंढ कर पढ़ें. जिन अमर शहीदों के नाम भी इन्होंने नहीं सुने होंगे, उनके बारे में लिखा गया है. समयानुसार आगे भी लिखूंगा. यह डॉक्टर विद्यासागर आनंद लिखित भूमिका की दूसरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)



पिछली कड़ी से आगे...

...स्वतंत्रता-दीप प्रज्ज्वलित रखने के लिए राष्ट्र को संगठित व अनुशासित रखना आवश्यक था अतः देश के राजनैतिक व धार्मिक पथ-प्रदर्शकों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता आन्दोलन को भारत के कोने-कोने तक फैला दिया. इनमें कुछेक तो भारत से बाहर के अन्य देशों तक चले गए तथा वहाँ स्वतंत्रता-आन्दोलन को सुदृढ़ बनाने हेतु सहायता प्राप्त करने के प्रयत्न किए.

इस लंबे स्वतंत्रता-आन्दोलन का उद्देश्य अंततः नब्बे वर्ष बाद १५ अगस्त १९४७ को तब जाकर प्राप्त हुआ, जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बहादुरशाह ज़फ़र के पूर्वजों के लाल क़िले से स्वतन्त्र भारत की घोषणा की. उस ऐतिहासिक दिवस से अब तक साठ वर्ष का (भूमिका लिखे जाते समय) समय बीत चुका है लेकिन खेद की बात है कि इस बीच भारत के राजनेताओं ने इस स्वतंत्रता-संग्राम में देश के बाहर व भीतर शहीद होने वाले जियालों के सम्मान को बढ़ावा देने में ढिलाई बरती और उन्हें वह स्थान नहीं दिया जिसके वे अधिकारी थे.

यहाँ अधिक अफ़सोस की बात यह है कि स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ज़फ़र के अवशेष भारत लाने का समर्थन किया था पर नामालूम कारणों से इस दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया गया. १ से ७ अक्टूबर के साप्ताहिक 'हमारी ज़बान' नई दिल्ली में इस विषय पर पंडित नेहरू का एक नोट प्रकाशित हुआ जिसके अनुसार उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था:-
“मौलाना साहब (आशय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से है) की राय है कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को रंगून से लाकर हुमायूं के मक़बरे में दफ़नाया जाए क्योंकि स्वयं उनकी भी अन्तिम इच्छा यही थी. मैं इस विषय में अपनी कैबिनेट के कुछ मंत्रियों से बात कर चुका हूँ और उन्हें इस पर कोई आपत्ति नहीं है."


नेहरू जी ने इसी नोट में आगे लिखा:-
"संभवतः बर्मा सरकार को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं होगी. मैं इस सुझाव के विषय में आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ, तत्पश्चात् हम इस मामले की और अधिक तफ़्तीश कर सकते हैं."

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बहादुरशाह ज़फ़र की अन्तिम इच्छा का उल्लेख करते हुए हुमायूं के मक़बरे में दफ़न होने की इच्छा बताई है जो किसी भ्रम के कारण है वरना तथ्य यह है कि ज़फ़र ने अपने दफ़न के लिए क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के निकट ही अपने पूर्वजों के पहलू में अपने लिए एक स्थान आरक्षित किया हुआ था. मिर्ज़ा फ़रहतुल्ला बेग अपने बहुचर्चित लेख 'फूल वालों की सैर' (सन् १९३४) में लिखते हैं:-

'देहली के बादशाहों ने आप (हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी) के मज़ार के चारों ओर संगमरमर की जालियाँ, फर्श और दरवाज़े बनवा दिए. दीवारों पर काशानी ईंटों का काम करवाया तथा आसपास मस्जिदें अदि बनवाईं... एक ओर तो संगमरमर की छोटी मस्जिद है और उसके पहलू में अन्तिम समय के बादशाहों के कुछ मज़ार हैं. बीच में शाहआलम द्वितीय का मज़ार है और उसकी एक ओर अकबरशाह द्वितीय की क़ब्र का एक पहलू ख़ाली था, उसमें बहादुरशाह ज़फ़र ने अपना 'सरवाया' (सुरक्षित स्थान) रखा था. विचार था कि मरने के बाद बाप-दादा के पहलू में जा पड़ेंगे, यह क्या मालूम था कि वहाँ क़ब्र बनेगी, जहाँ पूर्वजों का पहलू तो दूर की बात, कोई फ़ातिहा पढ़ने वाला भी न होगा.' (मज़ामीन-ए-फ़रहत (द्वितीय) लेख 'बहादुरशाह ज़फ़र और फूल वालों की सैर', प्रकाशक सरफ़राज़ प्रेस लखनऊ, पृष्ठ ४२).

प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के एक सौ पचास वर्षीय जश्न के अवसर पर बहादुरशाह ज़फ़र के लाल क़िले (जिसका प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम से निकट का सम्बन्ध रहा है) के समकालीन व्यवस्थापकों को इस विषय पर एक संदेश भेजा गया. इसके अतिरिक्त भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों और प्रवासी भारतीयों से भी हमने संपर्क साधा तथा बहादुरशाह ज़फ़र के अवशेष वापस अपने देश में लाने की मांग पर ध्यान देने का निवेदन किया. हमें इसकी ख़ुशी है कि अनेक लेखकों, शायरों, इतिहासकारों, पत्रकारों तथा बुद्धिजीवियों ने हमारे निवेदन को सहर्ष स्वीकारते हुए हमें अपनी रचनाएं भिजवायीं. इसके साथ ही उन्होंने हमारी इस मांग का समर्थन भी किया कि बहादुरशाह ज़फ़र के अवशेष विदेश से वापस अपने देश लाये जाएँ.


अगली कड़ी में जारी...

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र

(जिस पुस्तक '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' का जिक्र मैंने अपने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता और संयोजक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. आलेख की भाषा अवश्य अधिक चुस्त नहीं है, लेकिन विश्वास है कि इसमें व्यक्त की गयी तीव्र भावना पाठकों को ईमानदार लगेगी. यही भूमिका कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है- विजयशंकर चतुर्वेदी)
क्या नहीं हमने किया आज़ाद होने के लिए
खून भी अपना बहाया शाद होने के लिए
ताकि हम आज़ाद हों, अपने वतन में शान से
उर दिया बुझने न दें लड़ते रहें तूफ़ान से
हक़ हमारा था कि आज़ादी को फिर हासिल करें
मात अंग्रेज़ों को देने में जिएँ या हम मरें
पेशे-आज़ादी हमारी ज़िंदगी क्या चीज़ है
उर गुलामी को मिटाने जान भी क्या चीज़ है


गुलामी से मुक्ति तथा विदेशी प्रभुत्व व प्रभुसत्ता से आज़ादी पाने के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र ने एकजुट होकर स्वतंत्रता-संकल्प लिया था. अपने जान-माल की परवाह किए बिना तथा परिणाम के बारे में सोचे बिना, कफन को लहू में डुबोकर अपने सिरों से बाँध लिया था.

सन १८५७ का भयावह काल वास्तव में भारतीय राष्ट्र की अनगिनत कुर्बानियों व बलिदान की दास्तान है. एक ऐसी दास्तान जिसका आरंभ बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व से हुआ- वे पवित्र परन्तु क्षीण हाथ- जिन पर सारे हिन्दुओं, मुसलमानों व सिखों ने आस्था रखी, उन पर विश्वास रखा; जिसके कारण ही आज हम भारत को स्वतन्त्र देख रहे हैं. वह वास्तव में हमारे नब्बे वर्ष के लंबे संघर्ष का ही फल है.

आज़ादी की इच्छा एक ऐसी इच्छा थी जिसने विमुखता, अवज्ञा और नाफ़रमानी को जन्म दिया. अंग्रेज़ों ने इसे 'ग़दर' का नाम दिया, जिससे जाग्रति की एक ऐसी किरण फूटी; एक ऐसा सूर्य उदय हुआ जिससे अंग्रेज़ों को अपने पतन का आभास होने लगा. यह एक ऐसा संघर्ष था, एक ऐसा प्रकाश था जिसने अंग्रेज़ों के इरादों को जला देने के लिए चिंगारी का काम किया. तमाम भारतीयों के मन में विदेशी-प्रभुत्व तथा गुलामी का फंदा अपने गले से उतार फेंकने के सुदृढ़ संकल्प थे. किसी ने क्या ख़ूब कहा है-

'रोशनी आग से निकली है जला सकती है.'

सन् १८५७ के बाद बहादुरशाह ज़फ़र को अत्यन्त बेइज्जती एवं तौहीन भरे बर्ताव का सामना करना पड़ा था. आज़ादी का चिराग जलानेवाले इस अन्तिम मुग़ल शासक को रुसवा करके बड़ी दयनीय स्थिति में घर से हज़ारों मील दूर कैदखाने में भेज दिया गया तथा भारतीय नागरिकों पर भी अत्याचारों का पहाड़ तोड़ा गया. उन्हें गोलियों का निशाना बनाया गया. मासूम बच्चों को रौंदा गया तथा पवित्र नारियों की शीलता को तार-तार किया गया. इन अत्याचारों और सख्तियों के कारण भारतीयों में स्वतंत्रता-संग्राम की उमंग और बढ़ गयी, अधिक प्रबलता प्राप्त हुई और वे देश पर मर-मिटने के लिए तैयार हो गए. मजरूह सुल्तानपुरी का एक शेर है-
'सतून-ए-दार प रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले.'

इन सामूहिक संकल्पों और निरंतर संघर्ष का तर्क-संगत परिणाम सन् १९४७ में सामने आया. यह एक कठिन समय था जिसमें अनेक उत्त्थान-पतन हुए. आज़ादी की लड़ाई को विभिन्न स्तरों पर लड़ना पड़ा.

बहादुरशाह ज़फ़र को यद्यपि इतिहासकार एक पीड़ित और बेबस बादशाह के रूप में प्रस्तुत करते हैं पर आम व्यक्ति के दिल में उनके लिए स्नेह, मान और हमदर्दी के भाव मिलते हैं. वर्त्तमान में स्वयं को न्यायप्रिय कहलवाने वाला राष्ट्र (यहाँ आशय ब्रिटिश साम्राज्य से है), जिसने भारत में अपना शासन बनाए रखने के लिए, संस्कृति, सभ्यता एवं मानवता के नियमों की धज्जियाँ उड़ा दीं, वह क्रूरतम शासकों में शामिल हुआ. अंगेज़ लेखकों ने उस काल के भयावह हालत का उल्लेख अपने लेखों में शायद ही पूरी ईमानदारी से किया हो. ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ मासूम व बेबस बादशाह अपने बेटों की जाँ-बख्शी की भीख मांगता है तो तानाशाह उसके बेटों के सर काटकर थाल में सजा कर प्रस्तुत करता है;-

दे दिया जिसने आज़ादी का नारा वो ज़फ़र
अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र
ये ख़ुदा ही जानता है किस तरह ज़िंदा रहा
दूर जाकर अपने घर से बेनवां होकर मरा
फ़र्ज़ अब अपना है हिन्दुस्तान में लाएं उसे
इज्ज़त-ओ-तकरीम से देहली में दफ़नाएं उसे
परचम-ए-आज़ादी उसकी क़ब्र पर लहराएं हम
ताज-ए-आज़ादी अब उसकी नअश को पहनाएं हम
भूलने पाएं न उसकी याद को हम हश्र तक
आन उसकी कम न हो न माद हो उसकी चमक
हो शहीदों की चिताओं के मज़ारों की ज़िया
औ न हो पाए कभी ख़ामोश आख़िर तक सदा
ऐसे शोहदा जिनको अपनी जान की परवा न थी
देश-भक्ति में फना कर दी जिन्होंने ज़िंदगी
उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र
बेबसी में थी गुज़ारी जिसने हर शाम-ओ-सहर
उसकी क़ुरबानी को जो भूले नहीं वो आदमी
मीर-ए-आज़ादी को जो भूले, नहीं वो आदमी


अगली कड़ी में जारी...

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

CYA मतलब 'कवर योर ऐस', RAB का मतलब क्या?

सुभाष घई की फ़िल्म 'सौदागर' का वह गाना तो आपको याद होगा- 'इलू का मतलब आई लव यू." आप सोच रहे होंगे कि यह मैं बेमौसम का राग क्यों अलापने लगा! बात दरअसल ये है कि मेरे एक मित्र ने जब मुझसे ४५९ का मतलब पूछा तो मैं निरुत्तर रहा. फिर दूर की कौड़ी लाकर कहा कि शायद ७६८ की तरह ही यह अल्लाह, ईश्वर या अन्य किसी देवी-देवता के पवित्र अंकों की व्यवस्था होगी.
विश्वास किया जाता है कि ७८६ का मतलब है -'बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम' जो कुरान की पहली आयत भी है.लेकिन मेरे मित्र ने राज खोला कि ४५९ का मतलब है 'आई लव यू'. फिर उसने समझाया कि मोबाइल हैंडसेट पर जिन बटनों को दबाकर आई लव यू के पहले अक्षर प्राप्त किए जाते हैं वे बटनें हैं ४५९. यह तथ्य मुझे ले गया पिछले ज़माने की एसएमएसिंग की तरफ़ जहाँ एक अनोखी भाषा गढ़ ली गयी थी संदेश भेजने के लिए. जैसे कि लेट के लिए 18 तथा बी राइट बैक के लिए brb इस्तेमाल होता था


हम सब जानते हैं कि भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है. लेकिन युवा पीढ़ी को अभिव्यक्ति के लिए इतना समय कहाँ है. इसलिए हर पीढ़ी के युवा पूरे शब्द टाइप करने के बजाये अपना भाषा कोड ख़ुद गढ़ लेते हैं. कुछ भाषा विज्ञानी इस नई भाषा को ''टेक्सटीज' ' नाम दे रहे हैं. आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि जब सेलफोन की कल्पना भी नहीं की गयी थी, यानी द्वितीय विश्व युद्ध के ज़माने में, तब भी उस दौर के युवाओं ने 'सील्ड विथ अ लविंग किस' का शोर्ट कमांड SWALK ईजाद कर लिया था. ठीक आज की फिल्मों के संक्षिप्त नामों की तरह, जैसे कि दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे को डीडीएलजे या रब ने बना दी जोड़ी को आरएनबीडीजे कहना.

लेकिन आज एस एम एस की भाषा और जटिल हो गयी है. इसे डिकोड करना पुरानी पीढ़ी के लिए आसान नहीं है. बानगी पेश करता हूँ-

RAB का मतलब है- जिसके पास कोई रणनीति न हो या फिर ऐसा आदमी जो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है. यह कोड वर्ड जोनाथन रोस और रसेल ब्रांड (रोस एंड ब्रांड यानी आर एंड बी) नामक बीबीसी रेडियो-२ प्रेजेंटरों की दुर्गति से प्रेरित है जिन्होंने अभिनेता एंड्रयू सैच्स से ऑन-एयर फर्जी मजाकिया इंटरव्यू करके अपना कैरियर समाप्त कर लिया था.

कोड १८- यह उस व्यक्ति के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिसके लिए 'टेक्नोलॉजी' काला अक्षर भैंस बराबर है. आईटी के लोग एक इस कोड का इस्तेमाल करते हैं जिसका अर्थ होता है कि गलती उपभोक्ता की है, सॉफ्टवेयर में कोई ख़राबी नहीं है.

GOOD job: यह नौवें दशक के get-out-of-debt पद से उठाया गया है जिसका दरअसल मतलब है बुरा काम.

४०४: मोबाइल पर अगर यह संख्या दिखे तो समझ जाइए कि कोई आपको 'क्ल्यूलेस' बता रहा है. इस संख्या को इस्तेमाल करने का तर्क भी मजेदार है. दरअसल जब इंटरनेट ब्राउज़र किसी वेबसाईट का पता नहीं लगा पता तो खाली पेज पर लिखा रहता है ४०४ इरर. बस वहीं से भाई लोग प्रेरित हो गए.

BAB: बोरिंग. यह आया है 'ब्रिंग अ बुक' पद से. इसका अर्थ यह है कि कोई चीज इतनी उबाऊ लग रही है कि इसके बजाए आप किताब पढ़ना ज्यादा पसंद करेंगे.

CYA: मतलब है 'कवर योर ऐस'. काम बिगड़ने पर जब लगता है कि अब ख़ैर नहीं तब यह कोड इस्तेमाल किया जाता है.

तो देखा आपने, यह युवा मोबाइल पीढ़ी कितनी रचनात्मक है. अपने लिए ऐसी भाषा गढ़ रही है जिसे वही लिखती है और वही समझती है. यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अभी इन भाषा कोड का इस्तेमाल पश्चिमी देशों, खासकर ग्रेट ब्रिटेन में अधिक हो रहा है. कल्पना ही की जा सकती है कि इसे भारत पहुँचने में भला कितने दिन लगेंगे? यहाँ प्रस्तुत कुछ एसएमएस कोड वर्ड इंटरनेट की मदद से मैंने जुगाड़े हैं. कौन जाने इस बीच इस शब्दकोश में कुछ और कोड शब्द जुड़ गए हों!

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें...: ज़फ़र


सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र ने जननायक की भूमिका निभाई थी. ज़फर एक महान शायर भी थे. इस बुजुर्ग बादशाह ने अपनी पार्थिव देह दिल्ली की गोद में दफ़न कराने की इच्छा जताई थी. लेकिन मौत आई भी तो रंगून की जेल में. ज़फर की यह इच्छा पूरी करने का बीड़ा उठाया है लन्दन में रह रहे प्रवासी राजनीतिज्ञ एवं साहित्यकार डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने. उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक अभियान छेड़ रखा है. इसी कड़ी में प्रकाशित हुई है यह पुस्तक -'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र'. प्रसिद्ध कवि-लेखक आलोक भट्टाचार्य ने इसकी समीक्षा विशेष तौर पर हमारे लिए की है. यह आख़िरी कड़ी है.

(पिछली कड़ी से जारी)... इन लेखों में एक मिर्ज़ा ग़ालिब लिखित 'दस्तंबू' पर आधारित लेख भी है. 'दस्तंबू' ग़ालिब द्वारा १८५७ की क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा दिल्ली के क्रूर क़त्ल-ए-आम और लूट-पाट का आंखों देखा वर्णन है.

पुस्तक ५ अध्यायों में विभाजित है. पृष्ठ ५ से ३६ तक संक्षिप्त हिस्सों में संदेश, समर्पण, श्रद्धा-सुमन, भूमिका आदि औपचारिकताएं हैं, लेकिन ये भी अत्यन्त पठनीय और उपयोगी हैं. पुस्तक पूर्व सांसद और 'फ्रीडम फाइटर्स एसोसिएशन' के संस्थापक अध्यक्ष पद्मभूषण शशिभूषण जी को समर्पित है. शुभकामना संदेशों में प्रमुख है ब्रिटिश सांसद वीरेन्द्र शर्मा (ईलिंग साउदोल संसद, हाउस ऑफ़ कामंस के सदस्य) का संदेश. डॉक्टर विद्यासागर आनंद की भूमिका भी अवश्य पठनीय है.

'ज़फ़र की पुकार' शीर्षक से जो दूसरा अध्याय है, यही वास्तव में पुस्तक का मूल अंश है. इसमें बहादुरशाह ज़फ़र, १८५७ की क्रान्ति, विभिन्न सेनानी, शहीदों आदि से सम्बंधित 31 लेख हैं जो हमें कई अनजान पहलुओं से परिचित कराते हैं. इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू का मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को लिखा वह पत्र भी शामिल है जिसमें वह बहादुर शाह ज़फ़र की भारतीयता, उनकी महत्ता बताने के साथ-साथ ज़फ़र के पार्थिव अवशेषों को रंगून से लाकर दिल्ली में समाधिस्थ करने की जरूरत पर ज़ोर देते हैं.

हमें यह याद रखना चाहिए कि दिल्ली की मिट्टी में दफ़न होने की इच्छा बहादुरशाह ज़फ़र की तो थी ही, उनकी इस इच्छा की पूर्ति की दिशा में पंडित नेहरू ने पहल भी की थी. ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय आज़ादी के निराले योद्धा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भी यही इच्छा थी; ज़फ़र के अवशेष दिल्ली ही लाए जाएँ. 'आज़ाद हिंद फौज़' के गठन की प्रक्रिया में ही जब नेताजी रंगून गए, तो ज़फर की समाधि पर फूल चढ़ाते हुए उन्होंने भी यही इच्छा जाहिर की, और ज़फर की समाधि से ही नेताजी ने अपना लोकप्रियतम, उत्तेजक, नसों में खून की गति तेज कर देने वाला नारा लगाया- 'दिल्ली चलो.'

एक अध्याय विभिन्न शायरों द्वारा ज़फ़र को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए रची गई काव्य-रचनाओं का है- 'काव्य-श्रद्धा.' और अन्तिम अध्याय है ज़फ़र की काव्य रचनाओं में से चुनी गईं कुछ रचनाएं- गज़लें, नग्मे, रुबाइयात वगैरह. ज़फ़र एक महान शायर थे. उनकी शायरी में उनकी राजनीतिक विफलता का दुःख तो है ही, अंग्रेजों द्वारा तीन बेटों की हत्या किए जाने का दारुण दुःख, अपनी मार्मिक असहायता, निकटतम मित्रों, बेगमों, रिश्तेदारों की गद्दारी आदि से उपजी भीषण हताशा भी है, लेकिन इन सबके बावजूद साम्प्रदायिक सौहार्द्र, उदार मानवतावाद, भारत की मिट्टी से उनका प्रेम, प्रकृति का असीम सौन्दर्य, ईश्वर के प्रति उनकी आस्था, ईंट-पत्थर के मन्दिर-मस्जिदों की बजाए मनुष्य के ह्रदय के मन्दिर-मसाजिद पर ज्यादा विश्वास जैसी ज़फ़र की अनेक मानवीय-चारित्रिक खूबियाँ भी बड़ी ही शिद्दत के साथ आयी हैं.

उर्दू के अनन्य सेवक 'माडर्न पब्लिशिंग हाउस', नई दिल्ली के स्वत्वाधिकारी प्रेमगोपाल मित्तल अवश्य ही इस अत्यन्त जरूरी, उपयोगी, एक राष्ट्रीय अभियान को गति देने वाली इस दस्तावेजी और विचारोत्तेजक पुस्तक को छापने के कारण प्रशंसा और धन्यवाद के पात्र हैं. पुस्तक तथा पुस्तक के सम्पादक के विषय में मित्तल जी के विचार फ्लैप पर दिए गए हैं. इस पुस्तक के संयोजन एवं प्रकाशन के पीछे जो भावना है वह प्रणम्य है. दो ही चार हिन्दी विद्वानों के अलावा इस पुस्तक के शेष सभी लेखक मुख्यतः उर्दू के विद्वान लेखक हैं. लेकिन उनकी इस महती कृति को हिन्दी पाठकों का आदर और स्नेह अवश्य मिलेगा.

अंत में पुस्तक के प्रकाशन के विषय में कुछ बातें. बहुत ही अच्छे कागज़ पर उत्कृष्ट छपाई, उत्कृष्ट बंधाई के साथ यह पुस्तक भीतर के रंगीन और ब्लैक एंड व्हाइट २९ अमूल्य छाया-चित्रों के साथ-साथ बेहद सुंदर मुखपृष्ठ के लिए पाठकों को अत्यन्त प्रिय लगेगी.

लेकिन पुस्तक पढ़ते समय एक कमी पाठकों को लगातार खटकती रहती है. वह है प्रूफ़ की अशुद्धियाँ. ऐसे प्रामाणिक दस्तावेजी ग्रन्थ में प्रूफ़ की अशुद्धियाँ होना ही नहीं चाहिए. जबकि इसमें इतनी ज्यादा हैं कि खीझ होती है. उद्धरण को उद्धर्न, लगन को लग्न, ऑफसेट को अफ्सेट, प्रेस को प्रैस, सेनानी को सैनानी, फ़ारसी को फार्सी पढ़ते हुए कोफ़्त होती है. ब्रिटिश सांसद का नाम छापा है विरेंद्र शर्मा! यदि वह स्वयं अपने नाम के हिज्जे इस तरह लिखते हों तो आपत्ति नहीं, उनकी मर्जी है, लेकिन भाषा में विरेंद्र तो होता नहीं; वीरेन्द्र ही होता है.

फ्लैप पर जो सामग्री है, उसके अंत में 'इस पुस्तक में' को वाक्य की शुरुआत में लिख दिए जाने के बाद भी फिर वाक्य के अंत में लिखा गया है, जो सही नहीं है. और तो और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वह अत्यन्त प्रसिद्ध बहादुर शाह ज़फ़र का शेर- 'गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की' ग़लत छापा गया है. तख्त-ए-लन्दन की जगह 'तब तो लन्दन' छपा है. विश्वास है पुस्तक के अगले संस्करण में प्रूफ़ की तमाम भूलें सुधार ली जाएँगी. दस्तावेजी पाठ में हिज्जे की गलतियाँ भ्रम पैदा करती हैं. अतः उन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र '


(पिछली कड़ी से जारी) ...

अपने उस बुजुर्ग के प्रति इसी राष्ट्रीय कर्त्तव्य की जिम्मेदारी निबाहने के उद्देश्य से हिन्दी-उर्दू के प्रसिद्ध साहित्यकार-शायर, लन्दन प्रवासी राजनीतिज्ञ हिन्दी-उर्दू-अँग्रेजी में ५० से अधिक पुस्तकों के लेखक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने एक अभियान छेड़ रखा है- बहादुरशाह ज़फ़र की पार्थिव देह के अवशेष उनकी रंगून (अब म्यानमार, पूर्व में बर्मा) स्थित मजार से उनके देश, उनकी मातृभूमि भारत और उनके जन्मस्थान दिल्ली लाकर सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की समाधि के निकट अपने पूर्वजों की कब्रों के पास ख़ुद अपने लिए चुने स्थान पर दफ़न करके मकबरा बनाना और इस तरह उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार उनके 'कू-ए-यार' में उन्हें 'दो गज ज़मीन' दिलवाना, जो उनका हक़ है.

अन्तिम मुग़ल सम्राट के तौर पर जाने जानेवाले बहादुरशाह ज़फ़र तैमूर-बाबर-हुमायूं-अकबर-जहाँगीर-शाहजहाँ के महान वंशज तो थे ही, धोखेबाजी और चालाकी से भारत पर कब्ज़ा जमा लेने वाले धूर्त्त अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बगावत को नेतृत्व देनेवाले सर्वोच्च सेनानी भी थे. ज़फ़र एक उत्कृष्ट शायर थे. उर्दू साहित्य के इतिहास में मीर-ज़ौक-ग़ालिब-मोमिन के समान ही उनका महत्वपूर्ण स्थायी मुकाम है. वह सूफी धारा के एक ऐसे संत थे जो शराब-अफीम छूते तक नहीं थे. जातिवाद-सम्प्रदायवाद के कट्टर विरोधी उदार मानवतावादी दार्शनिक एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे ज़फ़र. ऐसे बहादुरशाह ज़फ़र अपनी इच्छा के विरुद्ध रंगून की एक समाधि में पड़े रहें, यह लाखों देशभक्तों की ही तरह डॉक्टर विद्यासागर आनंद को भी नागवार है, और उन्होंने १० मार्च २००७ को लन्दन में अप्रवासी भारतीय और भारतीय विद्वानों की एक सभा में अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक विश्व समिति का गठन किया था- 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम १८५७ की विश्व यादगारी समिति.'

सन २००७ भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक सौ पचासवां साल भी था. सो समिति ने भारत सरकार को; बहादुरशाह ज़फ़र के पैतृक मकान, यानी दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले के मौजूदा व्यवस्थापकों को और सम्बद्ध तमाम प्रशासनिक विभागों, मंत्रालयों को एक ज्ञापन भेज कर यह मांग की थी कि ज़फ़र के पवित्र दैहिक अवशेषों को रंगून से दिल्ली लाकर उचित जगह समाधिस्थ किया जाए.

साथ ही समिति ने देश-विदेश के तमाम सम्बंधित इतिहासकारों, लेखकों, पत्रकारों एवं राजनेताओं से भी आग्रह किया कि वे इस अभियान को अपना सहयोग देते हुए इस विषय पर लेख लिखें. उन्हीं महत्वपूर्ण लेखों का संपादित संकलन है यह पुस्तक- '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र'

पुस्तक में संकलित ३७ लेखों में बहादुरशाह ज़फ़र के विषय में तो है ही, स्वतंत्रता-संग्राम तथा उसके अन्यान्य नायकों, शहीदों, चरित्रों के विषय में भी बहुत-सी ऐसी जानकारियां दी गयी हैं जो आम भारतीयों के साथ-साथ पूरे विश्व को भी मालूम होना चाहिए. जानकारियों एवं प्रसंगों की प्रामाणिकता पुष्ट करने वाले तथ्यात्मक दस्तावेजी सबूत भी हैं. पृष्ठ ३११ से ४८८ तक का जो अध्याय है -'पुराने पन्नों से,' वह तो प्रामाणिक दस्तावेजों के आधार पर लिखे गए प्रसिद्ध इतिहासकारों और विद्वानों के अत्यन्त ही वैचारिक और सूचनात्मक लेखों का ही संकलन है, जिसमें स्वतन्त्र भारत के प्रथम शिक्षामंत्री, अरबी-फारसी-उर्दू-अँग्रेजी के प्रकांड विद्वान मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, प्रसिद्द शायर मख़मूर सईदी जैसे लेखक-चिन्तक शामिल हैं.

...अगली कड़ी में जारी

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

'कू-ए-यार में' आखिर कब मिलेगी 'दो गज ज़मीन?'


सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फर ने जननायक की भूमिका निभाई थी. ज़फर एक महान शायर भी थे. इस बुजुर्ग बादशाह ने अपनी पार्थिव देह दिल्ली की गोद में दफ़न कराने की इच्छा जताई थी. लेकिन मौत आई भी तो रंगून की जेल में. उनका दर्द उन्हीं की इन पंक्तियों में झलकता है- 'कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें, इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में. कितना है बदनसीब ज़फर दफ्न के लिए, दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.' ज़फर की यह इच्छा पूरी करने का बीड़ा उठाया है लन्दन में रह रहे प्रवासी राजनीतिज्ञ एवं साहित्यकार डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने. उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक अभियान छेड़ रखा है. इसी कड़ी में प्रकाशित हुई है यह पुस्तक -'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फर'. प्रसिद्ध कवि-लेखक आलोक भट्टाचार्य ने इसकी समीक्षा विशेष तौर पर हमारे लिए की है. यह चार-पाँच कड़ियों में प्रस्तुत होगी- विजयशंकर चतुर्वेदी.

हिन्दुस्तान के बादशाह थे वह- शानदार मुग़ल परम्परा के सम्राट! जाने कितने-कितने लोगों को, कितने मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, कितनी संस्थाओं को कितनी ज़मीन दी उन्होंने! उन्हीं का तो घर है वह, उनका जन्मस्थान, उनके बचपन का आंगन, उनकी जवानी का महल, उनकी बादशाहत का शाही दरबार- वह लाल क़िला, जिसकी प्राचीर से आज भी हर साल १५ अगस्त और २६ जनवरी को भारत का तिरंगा फहराया जाता है- इतने विशाल हिन्दुस्तान के उस अन्तिम मुग़ल सम्राट को, जिसने सबको दिया, ख़ुद उसके माँगने के बावजूद हम उसे आज तक उसके 'कू-ए-यार' में दो गज ज़मीन भी न दे सके! उसकी अन्तिम इच्छा पूर्ण नहीं कर सके?

जबकि यह हमारा राष्ट्रीय फ़र्ज़ भी था. बहादुरशाह ज़फर सिर्फ़ भारत के अन्तिम मुग़ल सम्राट ही नहीं थे, वह प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक भी थे. उन्हीं के नेतृत्त्व में लड़ा गया था १८५७ का वह पहला महासंग्राम, अँग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ आज़ादी की वह पहली जंग. आज़ादी के दीवाने विद्रोही सिपाहियों को नेतृत्व देने वाले ८२ वर्ष के उस बुजुर्ग बादशाह ने अकथनीय तकलीफें झेलीं. जब अँग्रेज जनरल हडसन ने बादशाह के तीनों शाहजादों मिर्ज़ा खिज़र सुलतान, मिर्ज़ा मुग़ल और अबू बकर के कटे हुए सर क़ैदी बादशाह के आगे थाल में सजा कर पेश किए, तब बादशाह के दिल पर क्या गुज़री होगी, सोच कर कलेजा मुंह को आता है! सोचिए ज़रा, हिन्दुस्तान के उस बादशाह को क़ैद करके दिल्ली से रंगून बैलगाड़ी में ले जाया गया और जेल की एक तंग कोठरी में घुट-घुट कर मरने को मजबूर कर दिया गया! क्या उसके प्रति हमारा कोई कर्त्तव्य नहीं?

(अगली कड़ी में जारी)

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

एक लीटर खून

दोस्तो,
देर हुई आने में. करिए क्षमा!



एक लीटर खून

सुनते आए हैं शरीर में होता है कई लीटर खून
कहते हैं काले के शरीर में होता है गोरे से एक लीटर ज्यादा खून
यह एक लीटर बेसी खून ज्यादा उबाल मारता है
और निर्णायक क्षणों में भारी पड़ जाता है
गोरे लोग शायद इसीलिए बहाना चाहते थे
मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उसके जैसे देह के काले फरिश्तों का खून.

...अब ये एक लीटर खून बहाने का मामला था
या खून से खून का जोश ख़त्म करने का...
हिसाब-किताब बराबर करने का तो यहाँ कोई समीकरण भी नहीं बनता
क्योंकि गोरे की नज़र में खून तो काला था ही;
काले व्यक्ति की आत्मा भी काली थी

सच्चाई यह है कि सभ्यता ने इंतजार किया
और तय फ़रमाया कि लंबे समय तक बहाते रहना है काले व्यक्ति का खून

हमारी पीढ़ियों को भी लगता रहा है कि उनकी रगों में
सदियों से बनता आया है कई-कई लीटर अधिक खून
और बहाया जाता रहा है सड़कों पर इस कदर
कि युद्धों में बहे खून को पसीना आ जाए!
लेकिन हमारे खून का हिसाब-किताब दर्ज़ नहीं है किसी इतिहास में

इधर चुन-चुन कर बधिया किया जा रहा है देश के चंद बाशिंदों को
कि वे ठंडा करें अपने खून का जोश
या तैयार रहें धरती पर रहने का इरादा छोड़ने के लिए
वरना बिखरा दिया जायेगा चाँद का खून उनके आँगन में
क्या हुआ जो उनके शरीर में नहीं है एक बूँद भी ज्यादा खून!

-विजयशंकर चतुर्वेदी

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

स्मृति शेष: हिन्दी का क्रान्तिधर्मी कवि वेणु गोपाल

कागज़नगर में हम तीनों रोज़ ही शाम को मिलते. लेकिन रविवारों को हम सारा दिन साथ रहते. वेणु और तेज को एक कमरे का छोटा-सा मकान स्कूल की ओर से मिला हुआ था. वेणु मुझे रविवार को ख़ास आमंत्रित करता-- 'सुबह दस-ग्यारह बजे आ जाना'. मैं पहुंचता. मैं और वेणु गप्पों में लगते, तेज खाना पकाने में जुटता. गप्पों में कविता होती, कवि-यार-दोस्त होते. पुरानी फिल्मों के गीत होते. मैं गाता और वेणु एक घड़े को उलटा करके बजाता. वेणु बिलकुल भी सुरीला नहीं था, लेकिन जी खोलकर गाता. मुझसे वह मन्नाडे का गाया 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' बार-बार सुनता. कुछ ख़ास बांगला रवीन्द्र-संगीत भी सुनता. ख़ासकर- 'हे नूतोन, देखा दिक आर बार जीबोनेर प्रथम शुभो क्षण.'

(क्रान्तिधर्मी कवि वेणु गोपाल को बेहद आत्मीयता से याद कर रहे हैं प्रसिद्ध कवि और प्रतिष्ठित मंच-संचालक आलोक भट्टाचार्य, जो वेणु गोपाल के साथ बरसों रहे हैं)

मेरे एक छोटे भाई और तीन छोटी बहनों का वह शिक्षक था- हिन्दी पढ़ाता था उन्हें. मेरा सहकर्मी था. मेरा प्यारा दोस्त था वह, जिसका मैं सम्मान करता था. 'था' लिखते-कहते हुए दुःख हो रहा है कि मेरा प्यार और सम्मान पाने के लिए अब वह नहीं रहा, जब तक मैं ज़िंदा हूँ, और सिर्फ मेरा ही क्यों, और सिर्फ हिन्दी जगत ही क्यों, समूचे साहित्य जगत का प्यार और सम्मान वह पाता रहेगा, जब तक भाषा ज़िंदा रहेगी और ज़िंदा रहेंगे बोलनेवाले, पढ़नेवाले, लिखनेवाले. वह था वेणुगोपाल- हिन्दी का क्रान्तिधर्मी कवि. हिन्दी कविता से प्यार करनेवाले लोग जिसे इस तरह गिनते हैं- कबीर- निराला- मुक्तिबोध- नागार्जुन- राजकमल- धूमिल और फिर वेणुगोपाल और आलोक धन्वा.

सन् साठ के दौरान हिन्दी को लगभग एक ही साथ जिन कई प्रगतिशील-जनवादी कवियों ने वैचारिक तौर पर आंदोलित किया, कविता में दलित-शोषित-सर्वहाराजन के दर्द को पूरी सच्चाई के साथ कहने के लिए कविता का शिल्प ही बदल दिया, कविता को नयी भाषा देकर ज़्यादा तीव्र, ज़्यादा ताक़तवर बनाया, कविता को आम जनता के लिए राजनीति समझने का पाठ बनाया, उनमें राजकमल, धूमिल, आलोक धन्वा के साथ प्रमुख कवि थे वेणुगोपाल, जो १ सितम्बर २००८, सोमवार को रात १० बजकर २० मिनट पर तमाम जनवादी-प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े लोगों और मजदूरों-किसानों सहित इस चालाक और क्रूर व्यवस्था के शिकार तमाम आम जनों को अपना अन्तिम 'लाल सलाम' कह गए. पीछे छोड़ गए अपनी अद्भुत ताकतवर रचनाएँ, जो कमज़ोर और सताए जा रहे लोगों को पूंजीवादी साजिशों के ख़िलाफ़ लड़ते रहने की प्रेरणा और साहस देती रहेंगी. संघर्ष का रास्ता सुझायेंगी.

वेणुगोपाल मुझसे लगभग दस साल बड़े थे, लेकिन मैं उन्हें वेणु ही कहता. हम लगभग ३७-३८ वर्षों पहले मिले, आंध्र प्रदेश के तेलंगाना स्थित एक छोटे-से शहर सिरपुर-कागज़नगर में. १९७१-७२ का ज़माना. मैं १९-२० साल का था. कवितायें करने लगा था. सिरपुर-कागजनगर में कविता के लिए उपादान तो बहुत थे, कविता समझने वाला कोई नहीं था. वहाँ बहुत गरीबी थी, अशिक्षा थी. बहुत शोषण था. नंगी वर्ग-विषमता थी. बिड़ला का विशाल कागज़-कारखाना था. बिड़ला ने कालोनी बना रखी थी. अफ़सरों के लिए शानदार बंगलों की अलग कालोनी, क्लर्कों-बाबुओं के लिए क्वार्टरों के अलग मोहल्ले और मजदूरों के लिए दड़बानुमा एक कमरे के मकानों के अलग मोहल्ले. मोहल्ले विभाजित थे, सो उच्च, मध्य और निम्न वर्ग बिलकुल अलग पहचाने जाते थे. शोषण का आलम यह था कि रोज़ मजदूरों को आठ घंटों की मजदूरी ढाई रुपये मिलती थी, मजदूरिनों को सवा रुपये! यानी महीने में साढ़े सैंतीस रुपये!

ऐसे माहौल में मैंने कविता लिखना शुरू किया. बांग्ला और हिन्दी में कविता करने वाला वहाँ सिर्फ मैं था. कविता सुनने वाला कोई नहीं था. तभी वहाँ वेणुगोपाल आए, तेजराजेन्द्र सिंह आए. हैदराबाद से. हैदराबाद कागज़नगर से पाँच-छः घंटे पर पड़ता है. छोटी-सी जगह. ढाई-तीन हज़ार की बस्ती. सो हम लोगों को मिलते देर नहीं लगी. वेणु और तेज दोनों बिड़ला द्वारा संचालित हाई स्कूल में अध्यापक बनाकर आए थे. वेणु हिन्दी पढ़ाते, तेज विज्ञान. दोनों को पाकर मैंने मानो प्राण पाये. मुझसे मिलकर हैदराबाद छोड़ आने की उनकी भी उदासी दूर हो गयी. रोज़ शाम को मिलते. साहित्यिक बातें होतीं. कभी मैं सुनाता, कभी वेणु. तेज की रूचि समीक्षा में थी.

पहले वेणु की कवितायें छपनी शुरू हुईं. 'लहर' में. फिर मेरी भी छपने लगीं. 'साम्य' में विजय गुप्त ने मुझे और वेणु को ख़ूब छापा. वेणु की उन दिनों की कवितायें उसके पहले संग्रह 'वे हाथ होते हैं' में संकलित हैं. ये वे कवितायें हैं, जिन्हें कागज़नगर के एक कवि-सम्मलेन में सुनाने के बाद वहाँ के कुछ व्यापारी मारवाड़ियों ने कहा था- 'मारवाड़ी होकर तुम ऐसी कवितायें लिखते हो? ये कवितायें हैं क्या?'

कागज़नगर के हमारे उन दिनों की यादें वेणु ने अभी पिछले दिनों हैदराबाद से निकलने वाली पत्रिका 'गोलकोंडा दर्पण' में धारावाहिक छप रहे अपने संस्मरण 'कविता के पड़ाव' में बहुत शिद्दत से लिखीं. लेकिन वेणु 'कविता के पड़ाव' पूरा नहीं कर पाया. बीमारी की वजह से उसका लिखना लगभग दस-ग्यारह महीनों पहले ही बंद हो गया. मैंने फ़ोन किया, तो उस पार से उसकी आवाज सुनकर मैं डर गया. कमज़ोर-कांपती-थरथराती महीन-सी आवाज. जबकि वेणु की आवाज भारी और स्पष्ट हुआ करती थी.गूंजनेवाली. उसकी आवाज का कमाल हम सबने तब ख़ास देखा था, जब कागज़नगर के अपने स्कूल 'बाल विद्या मन्दिर' के बच्चों के साथ उसने मोहन राकेश के 'आषाढ़ का एक दिन' का मंचन किया था. वेणु ने कालिदास की भूमिका की थी. मेरा छोटा भाई तुषार मातुल बना था और मेरी छोटी बहन प्रतिमा प्रियंगुमंजरी. वेणु ने 'कविता के पड़ाव' में इसका जिक्र करते हुए लिखा है- 'मंचन के दौरान कई गलतियाँ हुईं, लेकिन तुषार और प्रतिमा ने मंजे हुए कलाकारों की तरह सब सम्भाला.' (गोलकोंडा दर्पण, पृष्ठ २८, अंक अक्टूबर २००७.).

मैं १९८१ में मुंबई आ गया. इसके पहले, यानी काफी पहले सन् १९७४-७५ में ही वेणु की नौकरी छूट चुकी थी. वह हैदराबाद चला गया था. बाद में एक बार नागपुर के एक कार्यक्रम में उससे मुलाक़ात हुई, और आख़िरी मुलाक़ात डोम्बीवली (ठाणे, महाराष्ट्र) में तब हुई जब वह किसी फिल्मी लेखन के सिलसिले में मुम्बई आया. उसने मुझे फ़ोन किया तो मैंने उसे डोम्बीवली बुला लिया. हम मिले. मैंने अपना घर उसे दिखाया. बहुत ख़ुश हुआ वह मेरी पत्नी रूना से मिलकर. मेरा घर, मेरी पत्नी, मेरा बच्चा, मेरी किताबें देख कर वह बहुत ख़ुश हुआ. फिर शाम को हम 'रंगोली' में बैठे. उसने बीयर पी. पंचमावस्था में हमने तीस साल पहले के वही फिल्मी गाने फिर गाये, जो हम कागजनगर में वेणु के घर रविवारों की दोपहरों में गाते थे- 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, 'कौन आया मेरे मन के द्वारे', 'लागी छूटे न अब तो सनम' और 'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम'... तब वेणु घड़ा बजाता था, अब उसने टेबल बजाई.
वाकई वेणुगोपाल के लिए कविता करना बहुत कठिन था. वह मारवाड़ी था, ब्राह्मण, नन्दगोपाल शर्मा. पिता हैदराबाद के एक मन्दिर में पुजारी थे, वेतनभोगी. ख़ुद वेणु बिड़ला की नौकरी में. व्यवस्था के ख़िलाफ़ बेटे का एक शब्द बाप-बेटे दोनों की नौकरियाँ खा सकता था. बाद में वेणु की वह नौकरी गयी, कविता की वजह से नहीं, उसकी राजनीतिक गतिविधियों की वजह से.

फिर तीन साल के अंतराल के बाद हम 'गोलकोंडा दर्पण' के माध्यम से मिले. दोनों एक साथ छप रहे थे. हर अंक के बाद फ़ोन पर बातें होतीं. मैंने कहा- 'मुम्बई आओ.' तो बोला, 'डायबिटीज ने एक पाँव खा लिया. बीमार हूँ. नहीं आ सकता. तुम हैदराबाद आ जाओ.' मैं इस दशहरे यानी अक्टूबर २००८ को कागजनगर होते हुए हैदराबाद जाने की सोच रहा था कि २ सितम्बर २००८, मंगलवार की सुबह हैदराबाद से फ़ोन आ गया- 'वेणु नहीं रहे!.'

आठ महीने से वह कैंसर से पीड़ित था. इलाज चल रहा था. कई प्रांतीय सरकारों, ख़ासकर मध्यप्रदेश सरकार ने इलाज के लिए आर्थिक मदद दी, कई संस्थाओं ने भी, मैं समझ सकता हूँ, वेणु का स्वाभिमान न अपने बीमार-कमज़ोर हो जाने को ही मान पाता होगा, न ही सरकारों-संस्थाओं की मदद को, सो पैंसठ की अल्पायु में ही वह चल बसा.

दशहरे में जाऊंगा जरूर हैदराबाद, पुराना पुल स्थित उस शमशान में भी, जहाँ वेणु की राख पड़ी हुई है. बारह साल पहले जब हैदराबाद गया था तह वेणु, ओमप्रकाश निर्मल और शेषेन्द्र शर्मा ने मिलकर मेरे सम्मान में एक कवि-गोष्ठी की थी. आज ये तीनों नहीं हैं. मुझे जानने-पहचानने वाले वहाँ बहुत हैं, कवि-गोष्ठी करने वाले भी बहुत, लेकिन गोष्ठी में हिन्दी की श्रेष्ठ कविताओं का पाठ करने वाला वह वेणु अब नहीं मिलेगा. नहीं मिलेगा गोष्ठी में पढ़ी गयी किसी कठिन कविता को सरल भाषा में समझानेवाला वेणु...

-आलोक भट्टाचार्य
(संपर्क: ०९८६९६८०७९८ और ०९८२१४०००३१)

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

'वेबदुनिया' से यह मसाला मैं ज्यों का त्यों उड़ा रहा हूँ. आप भी आनंद लीजिये. मुआफी चाहता हूँ कि कॉपी करते वक्त इसके संग्रहकर्ता का नाम कट गया. और अब बेहद ईमानदार कोशिश के बावजूद उनका नाम याद नहीं कर पा रहा हूँ. इरादा नेक है. और तबीयत दुरुस्त.

अब उन अनजाने दोस्त की लिखी भूमिका-

'हर शायर अपने हालात से मुतास्सिर होकर जब अपनी सोच और अपनी फ़िक्र को अल्फ़ाज़ का जामा पहनाता है तो वो तमाम हालात उसके कलाम में भी नुमायाँ होने लगते हैं। 1857 के इंक़िलाब के बाद जो हालात हिन्दुस्तान में रूनूमा हुए उनसे उस दौर का हर शायर मुतास्सिर हुआ। अकबर इलाहाबादी ने उन हालात का कुछ ज़्यादा ही असर लिया।

अपने मुल्क और अपनी तहज़ीब से उन्हें गहरा लगाव था। वो खुद अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे थे और अंग्रेज़ों की नौकरी भी करते थे। लेकिन इंग्लिश तहज़ीब को पसन्द नहीं करते थे। उन्हें ऐसा महसूस होने लगा था कि अंग्रेज़ धीरे-धीरे हमारी ज़ुबान हमारी तहज़ीब और हमारे मज़हबी रुझानात को गुम कर देना चाहते हैं।

इंग्लिश कल्चर की मुखालिफ़त का उन्होंने एक अनोखा तरीक़ा निकाला। मुखालिफ़त की सारी बातें उन्होंने ज़राफ़त के अन्दाज़ में कहीं। उनकी बातें बज़ाहिर हंसी-मज़ाक़ की बातें होती थीं लेकिन ग़ौर करने पर दिल-ओ-दमाग़ पर गहरी चोट भी करती थीं।'

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत हैं मगर आराम के साथ

चार दिन की ज़िन्दगी है कोफ़्त से क्या फ़ाएदा
खा डबल रोटी, कलर्की कर, ख़ुशी से फूल जा

शौक़-ए-लैला-ए-सिविल सर्विस ने इस मजनून को
इतना दौड़ाया लंगोटी कर दिया पतलून को

अज़ीज़ान-ए-वतन को पहले ही से देता हूँ नोटिस
चुरट और चाय की आमद है, हुक़्क़ा पान जाता है

क़ाइम यही बूट और मोज़ा रखिए
दिल को मुशताक़-ए-मिस डिसोज़ा रखिए

रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में
कि अकबर नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में

मज़हब ने पुकारा ऎ अकबर अल्लाह नहीं तो कुछ भी नहीं
यारों ने कहा ये क़ौल ग़लत, तन्खवाह नहीं तो कुछ भी नही

हम ऎसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बेटे बाप को खब्ती समझते हैं

शेख जी घर से न निकले और मुझसे कह दिया
आप बी.ए. पास हैं तो बन्दा बी.बी. पास है

तहज़ीब-ए-मग़रबी में है बोसा तलक मुआफ़
इससे आगे बढ़े तो शरारत की बात है

ज़माना कह रहा है सब से फिर जा
न मस्जिद जा, न मन्दिर जा, न गिरजा

अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ाई लड़ने का ये भी एक तरीक़ा था। ये तो वो कलाम है जो छप कर अवाम के सामने आया। अकबर के कलाम का एक बड़ा ज़खीरा एसा भी है जो शाए नहीं हुआ है। शाए न होने की एक अहम वजह उसका सख्त होना भी है।

पका लें पीस कर दो रोटियाँ थोड़े से जौ लाना
हमारा क्या है ए भाई, न मिस्टर हैं न मौलाना


ग़ज़ल : अकबर इलाहाबादी

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऎं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी-मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तवक्को बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुल्बुल हूँ मगर चारे की ख्वाहिश में
बना हूँ मिम्बर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर.



उम्मीद है उस पेशकर्ता की पेशकश आपको पसंद आयी होगी. शुक्रिया!

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

बाढ़ से घिरे लोग

मैंने यह कविता १६ अगस्त १९९१ को (पुरानी दस्तयाब डायरी के मुताबिक़) भगवत रावत की कविता, जहाँ तक मेरी स्मृति है; 'गिद्ध' से 'बेहद' प्रभावित होकर अपने गाँव की बाढ़ को बार-बार भोगकर लिखी थी.

'कबाड़खाना' में केदारनाथ जी की कविता पढ़कर इसे खोजना पड़ा. कच्ची कविता समझकर मैंने अपनी कविता को स्वयं निरस्त कर दिया था. लेकिन अब देखता हूँ तो मुझे अपनी यह कविता काम की लगती है. आप सुधीजन हैं-

बाढ़ से घिरे लोग

बाढ़ से घिरे घरों की खपरैल पर
घर-गृहस्थी लेकर टंगे लोग जानते हैं-
कोई नहीं बचायेगा उनकी फसलें,
पानी में डूबते-उतराते ढोर-डंगर,
कोई नहीं मिटाएगा पेड़ों पर लगे बाढ़ के निशाँ
जब पेड़ ही बह गए तो कहाँ से कोई लगायेगा बाढ़ का अनुमान?

बाढ़ रह जायेगी अखबारों की सुर्खियों में
राहत रकम खो जायेगी काग़जात की मुरकियों में

लोग जानते हैं
और कूद पड़ते हैं उफनते पानी में
चलाते रहते हैं अपनी बाहें धारा के ख़िलाफ़
किनारा मिलने तक.

बुधवार, 23 जुलाई 2008

बाड़ रहे सो जला दिए साले

आज पेश-ए-खिदमत हैं दकन के मजाहिया शायर शमशेर कुंडागली के चंद अश'आर (एक मुशायरे में सुने थे दस साल पहले)


काम ख़ुद उन बुरा किए साले
नाम मेरा बता दिए साले

धुन में रम्मी की बीडियाँ पीको
मेरा बिस्तर जला दिए साले

गद्धे का पूं उने मुबारक भई
मेरा बाजा बजा दिए साले

खेत की देखभाल तो छोडो
बाड़ रहे सो जला दिए साले

नाम से रोशनी के क्या बोलूँ
मेरी कथडी जला दिए साले

मेड इन इंग्लैंड बोलको व्हिस्की
थू-थू देसी पिला दिए साले

मुर्गियां मेरी काटको खा गए
दाल मुझको खिला दिए साले

खुत्ते सब बस्ती के मुझे काटतईं
पीछे पुच्छा लगा दिए साले

(खिसियानी बिल्लियों के लिए खम्भा सादर समर्पित).

सोमवार, 21 जुलाई 2008

विश्वास मत: फ़िल्म की कहानी का अंत बता दूँ?



लोकसभा में २२ जुलाई २००८ का ड्रामा देखने का रोमांच ख़त्म हो गया है. दरअसल अगर जासूसी फ़िल्म की कहानी का अंत बता दिया जाए तो फ़िल्म क्या देखनी! लेकिन वह अंत बताने से पहले मैं अपने दिल की बात करना चाहूंगा

२० और २१ जुलाई को मैं ठाणे लोकसभा क्षेत्र में था. वहाँ मैंने घूम-घूम कर कई लोगों से बातचीत की. घोड़बन्दर रोड गया, भायंदर गया, मीरा रोड में थमा, ठाणे शहर में घूमा, कलवा गया, दिवा गया, कल्याण फिरा, मुम्ब्रा में तहकीकात करता रहा. एटमी करार के बारे में बात की, मंहगाई के बारे में पूछा. लोगों को एटमी डील के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था, लेकिन मंहगाई के बारे में सबने शिकायत की. अलबत्ता मीरा रोड और मुम्ब्रा में किसी ने मुसलमानों को यह बता रखा था कि यह डील मुसलमानों के खिलाफ़ है क्योंकि बुश के साथ हो रही है. बुश कौन है, इस पर ज्यादातर लोगों ने चुप्पी साध रखी थी. इसका मतलब पता ही नहीं! (यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैंने जिन लोगों से बात की उनमें से ९०% लोग सड़क पर मिले.)

इस पर मैं लोगों में धंसा और मैंने लोगों से जानना चाहा कि क्या किसी राजनीतिक दल ने, उसके किसी भी स्तर के पदाधिकारी ने राय ली है कि लोकसभा में विश्वासमत के दौरान क्षेत्र का सांसद एटमी डील पर किस गठबंधन की तरफ मतदान करे? एनडीए समेत नए गठजोड़ की तरफ या यूपीए की तरफ? जवाब था कि इस बारे में वे लोग सिर्फ टीवी चैनलों में देख-सुन रहे हैं या अख़बारों में पढ़ रहे हैं.मैंने पूछा कि सांसद महोदय आपसे आख़िरी बार कब मिले थे या आपने आख़िरी बार कब उन्हें देखा था, तो जवाब मिला कि चुनाव के वक्त वोट माँगने वह कहीं-कहीं सचमुच पहुंचे थे. (चूंकि ठाणे लोकसभा चुनाव २ माह पहले ही हुआ है इसलिए यहाँ आप थोड़ी छूट दे सकते हैं. प्रकाश परांजपे के देहांत के बाद उनके सुपुत्र शिवसेना के सहानुभूति टिकट पर चुनाव जीते हैं).

मेरा कहना यह है कि जब सांसद वोट माँगने घर-घर जा सकते हैं तो एटमी डील जैसे गंभीर मुद्दे पर घर-घर से राय क्यों नहीं ले सकते? या अपने पदाधिकारियों से राय क्यों नहीं मंगा सकते? उसके बाद उन्हें अपना मन बनाने का पूरा अधिकार है. (कुछ आशंकाओं-कुशंकाओं सहित).
हम सभी जानते हैं कि हमारा सांसद चुन कर जब गया था तब मुद्दे कुछ और थे, विश्वासमत के दौरान मुद्दा कुछ और है. क्या एनडीए या यूपीए के सांसद अपने मतदाताओं से यह पूछना जरूरी नहीं समझते कि आख़िर एटमी डील पर वे क्या सोचते हैं? या फिर क्या ये सांसद यह समझते हैं कि उनके मतदाताओं की इतनी औकात है कि वे एटमी डील पर अपनी कोई राय दे सकें? जब ये लोग चुने गए थे तब एटमी डील मुद्दा नहीं था, ऐसे में क्या इनका अपने मतदाताओं से यह पूछना लाजिमी नहीं है कि इस मुद्दे पर वे क्या करें?

लोकसभा में चुन कर गए सांसदों को अपना मत बेचने का क्या अधिकार है? क्या इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि चुन कर जाने के बाद उन्होंने अपने लाखों मतदाताओं को धर बेचा है? हो सकता है कि मन्दिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम जैसे भावनात्मक मुद्दों पर सांसद चुन कर भेजने वाला मतदाता एटमी डील पर अपनी कुछ और राय रखता हो! ऐसे में नाकारा सांसदों को संसद से वापस बुलाने की जनता की पहल का विचार इन सौदेबाजों की नज़र में कितना निरर्थक है, यह सहज ही समझ में आता है.

और अब फ़िल्म का अंत...

मेरे एक दिल्ली स्थित सूत्र ने बताया है कि अजित सिंह और देवगौड़ा को यह सौदा करके बीएसपी खेमे में भेजा गया है कि तुम्हारे बेटे का मंत्री पद पक्का है, कल तक नाराज़ होने का अभिनय करो ताकि दुश्मन मुगालते में रहे. लेकिन इंतजाम इतना हो चुका है कि देवगौड़ा के बगैर भी मनमोहन सरकार नहीं गिरनेवाली.

अब तेल देखो और तेल की धार देखो. कल मिलेंगे ...शाम को!

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

'खबरों' का सिलसिला लगातार 'ज़ारी' क्यों है?





हिन्दी समाचार चैनलों के टीवी एंकरों की भाषा पर काफी बातें कही-सुनी जा चुकी हैं लेकिन वे नहीं सुधरे। गुणीजनों की निगाहें नुक्तों और उच्चारण पर भी गयी हैं, लेकिन एक बात पर इनका भी ध्यान नहीं गया. बात एनडीटीवी, इंडिया टीवी, सहारा, आईबीएन ७ या इसी तरह के अन्य टीवी समाचार चैनलों की है. जिन चैनलों में कई दिनों से यह लाइन नहीं सुनी, पहले वे भी इसी रोग से ग्रस्त थे.


बरसों से देखता-सुनता आ रहा हूं और आप भी देख-सुन रहे होंगे। अक्सर ब्रेक लेने से पहले एंकर यह पंक्ति उचारता है-"'खबरों' का सिलसिला लगातार 'ज़ारी' है."

औरों की तरह मैं भी यह मानता हूं कि हिंदी टीवी समाचार चैनलों में भाषा के बड़े-बड़े जानकार बैठे हैं लेकिन किसी का ध्यान इतने वर्षों में इस दारुण चूक पर नहीं गया।
उपर्युक्त पंक्ति में तीन शब्द हैं सिलसिला, लगातार और जारी। देखने की बात यह है कि इन तीनों शब्दों में एक ही भाव अंतर्निहित है और वह है 'निरंतरता.' मतलब यह हुआ कि हम एक भाव और एक ही गतिविधि को तीन बार कहते जाते हैं. यह तो वही बात हो गयी जैसे कि कोई कहे- 'मैं अभी वापस लौटता हूं।'
इसमें वापस होने में ही लौटने का भाव निहित है. इसीलिये वापस लौटने का प्रयोग बेजा हो जाता है. ठीक इसी प्रकार ख़बरों का सिलसिला जारी रहने का प्रयोग गलत है.

इसमें 3 अलग-अलग वाक्य बनते हैं‌-
१) ख़बरों का सिलसिला बना रहेगा,
२) हम ख़बरें लगातार दिखाते रहेंगे और
३) ख़बरें जारी रहेंगी।
अगर चैनल वाले चाहें तो इन 3 अलग-अलग पंक्तियों से 3 चैनलों का काम चल सकता है. मैं ये पंक्तियां उन्हें मुफ्त में देने को तैयार हूं. आप लोग क्या कहते हैं?

रविवार, 29 जून 2008

उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या- निदा फाज़ली





निदा फाज़ली उन बड़े शायरों में से हैं जिनके अश'आर लोगों की ज़ुबां पर रच-बस जाते हैं. यही बात आज के अधिकांश शायरों या हिन्दी कवियों के बारे में दावे से नहीं कही जा सकती. अपनी इस बात के समर्थन में मैं उनके कुछ शेर रखूंगा-


अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाए,
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए.

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.


या

नक्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिये,
इस शहर में तो सबसे मुलाक़ात हो गयी.


ऐसे कई शेर हैं जिनका हवाला दे सकता हूँ लेकिन बात उनकी चंद नई और नायाब ग़ज़लों की है.

एक दौर था जब उस्तादों के यहाँ, मुशायरों या नशिस्तों में तरही गज़लें लिख-लिख कर शायर प्रशिक्षित हुआ करते थे. मसलन, बशीर बद्र साहब का वह मशहूर शेर- 'उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए' ; ऐसी ही एक नशिस्त के दरम्यान मिनटों में हो गया था.

निदा साहब के मामले में उलटा हो रहा है. अब वह ख़ुद एक उस्ताद शायर हैं लेकिन पिछले दिनों कई गज़लें उन्होंने दूसरों की ज़मीन पर कही हैं. यह बात और है कि ये सभी शायर उस्तादों के उस्ताद रहे हैं. निदा साहब ने जिन महान शायरों का इंतखाब किया है उनमें अमीर खुसरो, कबीर, कुली कुतुब शाह, नज़ीर अकबराबादी, मीर तकी मीर, मिर्जा ग़ालिब... सूची लम्बी है. चलिए बिना वक्त बरबाद किए निदा साहब की तीन ऐसी ही ग़ज़लें पढ़ी जाएँ:-

सबसे पहले अमीर खुसरो. खुसरो की एक ग़ज़ल का मत्तला है-

जो यार देखा नैन भर मन की गयी चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर.


अब इसी ज़मीन पर निदा साहब की ग़ज़ल-

मन्दिर भी था उसका पता, मस्जिद भी थी उसकी ख़बर
भटके इधर, अटके उधर, खोला नहीं अपना ही घर.

मेला लगा था हर जगह बनता रहा वो मसअला
कुछ ने कहा वो है इधर, कुछ ने कहा वो है उधर.

वो रूप था या रंग था हर पल जो मेरे संग था
मैंने कहा तू कौन है....उसने कहा तेरी नज़र.

कल रात कुछ ऐसा हुआ अब क्या कहें कैसा हुआ
मेरा बदन बिस्तर पे था, मैं चल रहा था चाँद पर.

अब कबीर दास. उनकी पंक्तियाँ हैं-

हमन हैं इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या
रहे आज़ाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या.

और अब कबीर की ज़मीन पर निदा साहब की ये ग़ज़ल-

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.

उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.

हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या.


...और आख़िर में पेश कर रहा हूँ नज़ीर अकबराबादी की ज़मीन पर निदा साहब की ये ग़ज़ल. नज़ीर का शेर है-

इस्लाम छोड़ कुफ़्र किया फिर किसी को क्या
जीवन था मेरा मैंने जिया फिर किसी को क्या.

और अब निदा साहब की ये ग़ज़ल नज़ीर की ज़मीन पर देखें-

जो भी किया, किया न किया, फिर किसी को क्या
ग़ालिब उधार लेके जिया फिर किसी को क्या.

उसके कई ठिकाने थे लेकिन जहाँ था मैं
उसको वहीं तलाश किया फिर किसी को क्या.

होगा वो देवता मेरे घर में तो साँप था
ख़तरा लगा तो मार दिया फिर किसी को क्या.

अल्ला अरब में, फ़ारसी वालों में वो ख़ुदा
मैंने जो माँ का नाम लिया फिर किसी को क्या.

दरिया के पार कुछ नहीं लिक्खा हुआ तो था
दरिया को फिर भी पार किया फिर किसी को क्या.


निदा साहब का ग़ज़लों की इस श्रृंखला पर कहना है-
'एनडीए की सरकार के दौरान इतिहास के कपबोर्ड से राजे-महाराजे निकाले गए, उन्हें राजनीतिक खिलौना बनाया गया. ऐसे में मैंने उन मूल्यों की तलाश की जो मूल्य राजनीति ने नष्ट करने की कोशिश की थी.
भारतीय संस्कृति ५००० साल से अधिक पुरानी है. इसमें जो मानव-मानव का रिश्ता, मानव-ईश्वर का रिश्ता बना उसे बीच के एजेंटों ने ख़राब किया है. इसे कलमबद्ध करने की कोशिश मैंने इन ग़ज़लों में की है और सियासत को मोहब्बत सिखाने का प्रयास किया है. खुसरो से लेकर कबीर, नज़ीर, मीर आदि के छंदों के जरिये आधुनिक युगबोध द्वारा उन मूल्यों को पकड़ने की कोशिश की है जो आदमी को आदमी से जोड़ते हैं, मिलाते हैं.

वैसे भी कविता-शायरी में आम आदमी और निम्न मध्य वर्ग की बात तो सभी करते हैं लेकिन ज़ुबाँ मध्यवर्ग या उच्च मध्य वर्ग की होती है. आम आदमी की ज़बान में खुसरो, कबीर, नज़ीर, मीर ने बात की है, आगे नागार्जुन, धूमिल, दुष्यंत कुमार ने बात की है, लेकिन अज्ञेय, मुक्तिबोध की भाषा आम आदमी की भाषा नहीं है. वह बात करने की कोशिश मैंने की है.
'

गुरुवार, 26 जून 2008

इस बार पढ़िये सिब्बन बैजी की चंद गज़लें

शायर सिब्बन बैजी का मूल नाम सीबी सिंह है, मुझे इसका इल्म बहुत बाद में हुआ. करीब १८ साल पहले जब मैं मुम्बई में उनसे मिला था तो उन्हें तमाम दोस्त सिब्बन नाम से पुकारते थे. वह फक्कड़ तबीयत के, छपने-छपाने के मामले में बेपरवाह शायर रहे हैं. तभी तो उनका एकमात्र ग़ज़ल संग्रह २००७ में आ पाया है वह भी नौकरी से रिटायर होते-होते.



सिब्बन मूलतः अलीगढ़ जनपद स्थित विजयगढ़ नामक क़स्बे के हैं. जिंदगी भर पोस्ट ऑफिस में चाकरी की लेकिन शायरी का चस्का ऐसा कि मनीआर्डर फॉर्म पर भी शेर लिख लेते थे. सिब्बन की और मेरी उम्र का फासला बहुत है लेकिन पहले दिन से ही हम दोस्तों की तरह रहते आए हैं, न मैंने महसूस किया कि वह उम्रदराज़ हैं और न उन्होंने यह महसूस होने दिया कि मैं उनसे २५ वर्ष छोटा हूँ. यही सरलता उनकी शायरी की भी खासियत है. पछाहीं लोक संस्कृति की छौंक और तुर्शी उनके अश'आर में सर्वत्र मिलेगी. पेश हैं उनके संग्रह 'आग उगलने की जिद में' से चंद गज़लें-

कैसा है यह शहर कि हर पल गज़र सुनाई देता है
ढलती हुई रात का तन दोपहर दिखाई देता है.

बाहर से हर शख्स यहाँ का हरा-भरा-सा है लेकिन
भीतर जले हुए जंगल का शजर दिखाई देता है.

दूर तलक बस्ती है लेकिन कहीं घरों का नाम नहीं
घर रहते हर शख्स यहाँ दर-ब-दर दिखाई देता है.

किस्सों में खो गयीं नेकियाँ या दरिया में डूब गयीं
जित देखो उस ओर बदी का असर दिखाई देता है.

चलते रहे सहर से शब तक आख़िर वहीं लौट आए
जीवन जाने क्यों अंधों का सफर दिखाई देता है.

मेरी मानो तो 'सिब्बन जी' इस नगरी को छोड़ चलो
चंद सयानों की मुट्ठी में शहर दिखाई देता है.

****************************************


रख अपनी मुख्तारी बाबा
अपन भले बेगारी बाबा.

हम अपने बंजर खेतों की
हैं सब मालगुज़ारी बाबा.

रस्ते लहूलुहान कर गयी
राजा की असवारी बाबा.

जब देखो हंसते रहते हो
ऐसी क्या लाचारी बाबा.

आख़िर कब तक ख़ैर मनाती
'सिब्बन' की महतारी बाबा.


********************************************


इसका सर उसकी दस्तार
सबसे बढ़िया कारोबार.

दिन में लोग लगें दरगाह
रातों में मीना बाज़ार.

हर इक लब पे लिखा मिला
नानक दुखिया सब संसार.

है इन दिनों वही बीमार
जिसके आँगन पका अनार.

कलम कटारी मीठे बोल
सबके अलग-अलग औज़ार.

हर मजहब है 'सिब्बन जी'
धोती के नीचे सलवार.

************************************


रास्तों से जिस रोज़ सफ़र डर जायेगा
दरिया हो या बँजारा, मर जायेगा

दो की रंजिश में ये बस्ती उजड़ी है
पर इल्ज़ाम तीसरे के सर जायेगा

कितनों को आबाद कर गया देखेंगे
जिस दिन ये तूफ़ान लौट कर जायेगा.

ये तो ज़ख्म दोस्ती का है सच मानो
अगला धोखा आने तक भर जायेगा.

मालूम है अंजाम, भटक ले फिर भी
'सिब्बन' साला भोर भये घर जायेगा.


**********************************************


झूठी आस बंधाने वाले दिल को और दुखइयो न
माज़ी की मुस्कान लबों को हरगिज याद दिलइयो न.

दुनिया इक रंगीन गुफा है ऐयारी से रौशन है
मेरी सादगी के अफसाने गली-गली में गइयो न.

रमता जोगी बहता पानी इनका कहाँ ठिकाना है
कोरे आँचल को नाहक में गीला रोग लगईयो न.

हम हैं बादल बेरुत वाले बरसे बरसे, न बरसे
मौसम के जादू के नखरे मेरी जान उठइयो न.

रुसवाई के सौ-सौ पत्थर क़दम-क़दम पर बरसेंगे
दिल के टूटे हुए आईने दुनिया को दिखलइयो न.

***********************************************


खाली बोतल, टूटी चूड़ी, कपड़े फटे-पुराने से
हमने सुना है हुए बरामद मन्दिर के तहखाने से.

बाहर शोर कीर्तन का और भीतर चीख़ कुमारी की
ठाकुरजी की खुली न खिड़की महतो के चिल्लाने से.

सारा दोष बिजूकों का है फसलों को भरमाने में
नाहक ही बदनाम हो गया मौसम रंग जमाने से.

शोहदों से तो ख़ैर बच गयी इज्जत एक कुंआरी की
लगता है मुश्किल बच पाना पंच-कचहरी-थाने से.

शायद कोई जादूगरनी रहती होगी शहरों में
तभी लोग डरते रहते हैं गाँव लौटकर आने से.

***********************************

((मेरा मानना है कि जब तक किसी कवि या शायर की चार-छः कवितायें-गज़लें एक साथ पढ़ने को न मिलें तब तक उसके मिज़ाज को समझ पाना ज़रा कठिन होता है. उम्मीद है उपर्युक्त ग़ज़लों से गुजरने के बाद सिब्बनजी के बारे में आप कोई राय बना पायेंगे. आपकी राय यकीनन उन तक पहुंचा दी जायेगी.
सिब्बन बैजी के घर का पता है- बी/३०९, अरुणोदय अपार्टमेंट, गोड़देव नाका, भायंदर (पूर्व), ज़िला-ठाणे (महाराष्ट्र), पिन- ४०११०५)).

मंगलवार, 24 जून 2008

बाल कविता या प्रौढ़ कविता?

दोस्तों, कुछ दिनों पहले मुझसे एक कविता हो गयी. दोस्तों को पढ़वाई तो कहने लगे कि यह बाल कविता है. मैंने कहा कि अच्छा है, आजकल बाल-साहित्य पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है, लेकिन मुझसे बेध्यानी में ही सही; बाल-साहित्य के खाते में कुछ दर्ज़ हो गया.

उसके बाद कुछ और दोस्त कहने लगे कि यह सिर्फ बाल-कविता नहीं है, इसे प्रौढ़ लोग भी पढ़ सकते हैं. अब मैं दुविधा में पड़ गया. यह बाल-कविता है या प्रौढ़ कविता? मेरी इच्छा है कि सुधीजन इसे पढ़ें और बताएं कि मैं क्या समझूं?







गुरुजन

चींटी हमें दयावान बनाती है
बुलबुल चहकना सिखाती है
कोयल बताती है क्या होता है गान
कबूतर सिखाता है शांति का सम्मान.

मोर बताता है कि कैसी होती है खुशी
मैना बाँटती है निश्छल हँसी
तोता बनाता है रट्टू भगत
गौरैया का गुन है अच्छी सांगत.

बगुले का मन रमे धूर्त्तता व धोखे में
हंस का विवेक नीर-क्षीर, खरे-खोटे में
कौवा पढ़ाता है चालाकी का पाठ
बाज़ के देखो हमलावर जैसे ठाठ.

मच्छर बना जाते हैं हिंसक हमें
खटमल भर देते हैं नफ़रत हममें
कछुआ सिखा देता है ढाल बनाना
साँप सिखा देता है अपनों को डँसना.

उल्लू सिखाता है उल्लू सीधा करना
मछली से सीखो- क्या है आँख भरना
केंचुआ भर देता है लिजलिजापन
चूहे का करतब है घोर कायरपन.

लोमड़ी होती है शातिरपने की दुम
बिल्ली से अंधविश्वास न सीखें हम
कुत्ते से जानें वफ़ादारी के राज़
गाय से पायें ममता और लाज.

बैल की पहचान होती है उस मूढ़ता से
जो ढोई जाती है अपनी ही ताकत से
अश्व बना डालता है अलक्ष्य वेगवान
चीता कर देता है भय को भी स्फूर्तिवान.

गधा सरताज है शातिर बेवकूफ़ी का
ऊँट तो लगता है कलाम किसी सूफी का
सिंह है भूख और आलस्य का सिरमौर
बाकी बहुत सारे हैं कितना बताएं और...

सारे पशु पक्षी हममें कुछ न कुछ भरते हैं
तब जाकर हम इंसान होने की बात करते हैं.

-विजयशंकर चतुर्वेदी.

रविवार, 15 जून 2008

कौन ज्यादा कुत्सित- अमेरिकी या भारतीय मीडिया?

'मोहल्ला' में अंशुमाली जी का यह लेख और उससे पहले दिलीप मंडल का. मैंने टिप्पणी के रूप में कुछ बातें की थीं. शायद वे इन दोनों लेखों से जुड़ती हैं. दिलीप भाई के लेख पर कुछ इस तरह की शिकायत भी टिप्पणी के रूप में आयी थी कि बहस को दूसरी दिशा में क्यों मोड़ दिया गया. पूर्व और पश्चिम की बात करते हुए अक्सर हम एक अतिवादी दृष्टिकोण का शिकार हो जाते हैं. कुछ-कुछ मनोज कुमार की भारतीयत की तरह. उम्मीद है कि मित्रगण इसे वस्तुस्थिति और तथ्यपरकता की राह पर लायेंगे. फिलहाल बात मीडिया की हो रही है.

सरकारी नीतियों, धर्मांध समूहों, जाति की राजनीति करने वाले दलों का महिमामंडन करने, जनता से सच छिपाने, महानगरों और वहाँ की ही खबरों तथा जनजीवन को पूरा भारत समझ लेने जैसे कई मामलों में भारतीय मीडिया भी अमेरिकी मीडिया के नक्श-ए-कदम पर चल रहा है या कहें कि पश्चिम की भोंडी नक़ल करने की कोशिश कर रहा है. मीडिया में अमेरिकी तकनीक का पिछलग्गू बने रहना तो खैर उसकी मजबूरी ही है.


मैंने लिखा था-

दिलीप भाई, सर्वे वहाँ कराया जाता है जहाँ इसकी आवश्यकता होती है. हमारा मीडिया अंतर्यामी है और तय करता है कि जनता को क्या पढ़ना-देखना-सुनना चाहिए. हमारे यहाँ मीडिया का बाज़ार और न्यूज रूम की सुर-ताल का एक नमूना एक हिन्दी राष्ट्रीय चैनल पर मैंने चंद दिन पहले ही देखा. ऐसे उदाहरण लगभग हर चैनल से दिए जा सकते हैं. पतित होने की स्पर्द्धा चल रही है-

'एक महिला को साईं बाबा साक्षात दर्शन देने के बाद माला थमा कर चले गए, उसके बाद इसे ख़बर की तरह पेश करके उस तथ्य से जोड़ दिया गया कि साईं बाबा ने देह त्यागने से पहले अपने ९ सिक्के सेवा करने वाली लक्ष्मी अम्मा को दे दिए थे. उस महिला की पोती ने यह भी बताया कि वह वर्ष १९१८ का कोई दिन था.'

दर्शन देने वाली इस गल्प को कई ब्रेक लेकर बताया गया और हर ब्रेक में भरपूर विज्ञापन भी थे. सोचिये इन विज्ञापनों के जुटने से पहले साईं बाबा को टीवी पर ख़बर बन कर आने के लिए समाधि में कितनी करवटें बदलना पड़ीं होंगी!

वैसे, यह ख़बर देखने के बाद साईं बाबा मेरे सपने में भी आये थे और इस तरह 'यूज कर लिए जाने' की अपनी असहायता पर फूट-फूट कर रो रहे थे! (भक्तजनों से क्षमायाचना सहित!)

... अब अमेरिकी मीडिया इंडस्ट्री के इस सर्वे की बात (कृपया दिलीप मंडल की उसी पोस्ट में तालिका देखें). वह समाज या पाठकों के हितों वाला सर्वे नहीं है, बल्कि अपनी जान बचाए रखने का सर्कुलेशन सर्वे है. वहाँ पारंपरिक मीडिया की हालत पर्याप्त पतली हो चली है. भारत में भी कई संस्थाएं मेहनताना वसूल कर अखबारों-पत्रिकाओं के लिए इस तरह के सर्वे करती रहती हैं कि किस आयु वर्ग के लोग किस तरह की सामग्री पढ़ना पसंद करते हैं, वगैरह.

नॉम चोम्स्की ने सच ही कहा था कि अमेरिकी समाज दरअसल, एक बन्द समाज है. इसमें मैं यह और जोड़ना चाहूंगा कि अमेरिकी मीडिया की भूमिका इसमें बहुत ज़्यादा है. पड़ताल की जाए तो अमेरिकी मीडिया दुनिया भर के मीडिया, ख़ास कर भारतीय मीडिया से कई गुना ज़्यादा कुत्सित है.

अमेरिका कितना ही लोकतंत्र का दम भरे, वह अपने नागरिकों को किसी भी वैध माध्यम से दुनिया की सही तस्वीर नहीं पहुँचने देता. ख़ास तौर पर तब; जब उसके अत्याचारों की पोल अपनी ही जनता के सामने खुल रही हो. वहाँ का पूरा मीडिया इस खेल में शामिल होता है. ताज़ा उदाहरण इराक़ युद्ध का है. अमेरिकियों को इराक़ हमले के शुरुआती दो साल तक यह पता ही नहीं लगने दिया गया कि अमेरिकी सैनिकों की अगुवाई में क्या-क्या कहर निर्दोष इराकी जनता पर ढाये जा रहे हैं. वहाँ सद्दाम को आज-कल में पकड़ लेने और इराक में लोकतंत्र का झंडा एक-दो दिनों में फहरा दिए जाने की खबरें चलायी जा रही थीं. तमाम आरोपों के बावजूद इराक़ युद्ध की कहीं ज़्यादा व्यवस्थित खबरें भारत पहुँच रही थीं.
दिनांक ११ सितम्बर २००१ को न्यूयार्क स्थित ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद गिरफ्तार अल-कायदा कार्यकर्ताओं को रखने के लिए क्यूबा की धरती पर गुआंतानामो जेल(ख़ास प्रकोष्ठ) साल २००२ में बनायी गयी थी. बाद में इसमें अफ़गानिस्तान युद्ध के तालिबान बंदी लाये गए, उसके बाद इराक़ युद्ध के दौरान पकड़े गए लोग ठूंसे गए. इस जेल में अमरीकियों द्वारा विदेशी कैदियों पर ढाये गए अमानुषिक, लोमहर्षक लैंगिक अत्याचारपिशाचों को भी शर्मिन्दा कर देने वाले हैं. लेकिन अमेरिकी जनता को इनकी भनक भी नहीं लगने दी गयी. अत्याचार करने वालों में यूएस महिला सैनिक भी शामिल थीं!


यह तो तकरीबन 3 साल पहले भांडा फूटा और दुनिया के सामने अमेरिका का मुंह काला हो गया. अब जाकर गुरु (१२/०६/२००८) को यूएस सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इन कैदियों को अमेरिकी संविधान के तहत न्याय मिलेगा, इस पर यूएन ने भी ताली बजाई है. देखने वाली बात यह है कि जनता के सामने बात खुल जाने के बाद अब आगामी राष्ट्रपति चुनाव के दोनों प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेट बराक ओबामा और रिपब्लिकन जॉन मकैन भी इस जेल को ख़त्म कर देने के वादे करते नहीं अघा रहे.

इसी तरह जिस दिन से ब्लोगों और अन्य माध्यमों से इराक़ युद्ध की विभीषिका की तस्वीर साफ होना शुरू हुई उसी दिन से राष्ट्रपति बुश को अपनी जनता से नज़रें चुरानापड़ रही हैं. हर दूसरे-चौथे दिन सफाई देते रहते हैं और इस बार का राष्ट्रपति चुनाव जिन मुद्दों पर लड़ा जाना है, उनमें से यह एक बड़ा मुद्दा होगा. और अमेरिकी मीडिया हर बार के राष्ट्रपति चुनाव की तरह अमेरिका की शानदार 'हेट कैम्पेन' परम्परा का सक्रिय सहयोगी बन जायेगा.आख़िर विश्व में अमेरिकी पूंजी का तांडव होने से उसकी झोली में भी तो डॉलर बरसते हैं.

गुरुवार, 12 जून 2008

बारिश जो न करवाए, गीत लिखवा लिया!




बारिश जो न चाहे करवा ले!
कल वर्षा में सराबोर होकर जब घर पहुंचे तो हल्का-हल्का सुरूर छा चुका था. गली में बैठने वाले बुजुर्ग घड़ीसाज़ रियाज काका से सुबह ही छतरी सुधरवाई थी. रास्ते में हवा-पानी की मार से वह क्षत-विक्षत हो चुकी थी. पैराहन से पानी टपक रहा था. घर में घुसने से पहले ताकीद हुई कि ज़रा बाहर ही निचुड़ लो. फिर तौलिया आया, सूखे कपड़े आए, तब अपन घर के अन्दर दाखिल हुए.

मेथी के पकौड़े तैयार थे. फिर चाय का दौर चला. इसी बीच मन में एक गीत उमड़ने-घुमड़ने लगा. कागज़ पर उतरने के बाद कुछ यों हो गया है. पढ़िये और कहिये कैसा लगा-


बारिश की बूँदें चुईं
टप...टप...टप
कांस की टटिया पे
छप...छप...छप
बरखा बहार आयी
नाच उठा मन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन

उपले समेट भागी
साड़ी लपेट भागी
पारे-सी देह भई
देहरी पे फिसल गयी
अपनी पड़ोसन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन

बिल में भरा पानी
दुखी चुहिया रानी
बिजली के तार चुए
जल-थल सब एक हुए
पेड़ हैं मगन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन

फरर-फरर बहे बयार
ठंड खटखटाये दुआर
कैसे अब आग जले
रोटी का काम चले
मचल रहा मन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन.

शनिवार, 7 जून 2008

'बकरी जो मैं-मैं करती है....'


'मौर्यध्वज और ताम्रध्वज' नाटक हमारे यहाँ रामलीला का राज्याभिषेक समाप्त होने के बाद देसी मंडलियाँ खेला करती थीं. अब तो टीवी ने रामलीला मंडलियों को लील लिया है. बचपन में सतना जिले के दुरेहा कस्बे की रामलीला मंडली बड़ी नामाजादिक थी. उसका साजो-सामान और कलाकार ख्यातनाम थे. बीस बैलगाड़ियों में उसका सामान पहुंचता था. परशुराम का अभिनय करने वाले कलाकार रामरतन शुक्लाजी की प्रतिष्ठा इस बात में थी कि वह लक्ष्मण से वार्तालाप करते-करते तख्त तोड़ दिया करते थे - 'भा कुठार कुंठित कुलघाती...
'देखो बेटा, किसी को फालतू में गरब नहीं करना चाहिए. जिस प्रकार बकरी मैं-मैं करती है उसी तरह आदमी घमंड में जिंदगी भर मैं-मैं करता है, और बकरी के मरने के बाद जब उसकी खाल से रुई धुनने का तकुआ बनाया जाता है तब धुनिया के रुई धुनते समय उसकी खाल से तुही-तुही आवाज आती है, यानी तब बकरी मैं-मैं नहीं करती बल्कि तूही-तूही कहने लग जाती है. इसी प्रकार मरने के बाद आदमी को अपने घमंड का फल नरक में भोगना पड़ जाता है. अगर आदमी जिंदा रहते मैं-मैं छोड़कर भगवान को माने और कहे कि हे भगवान सारे काम तूही करता है तो उसे स्वर्ग मिलेगा.'


उनकी कद-काठी और मूछें ओरिजिनल थीं. उन्हें सामान्य रूप में देख कर भी हम डर जाया करते थे. लेकिन हमारे बाबा के साथ जब वह अपनी खेती-बाड़ी और घर के सुख-दुःख बयान करते समय बच्चों की तरह निर्मलता से हंसते तो हमारा डर जाता रहता था. पंडित जी रामलीला की घटती लोकप्रियता पर भी चार आंसू बहाना नहीं भूलते थे. उन्हें इस बात से भी तकलीफ होती थी कि जमींदार लोग आमोद-प्रमोद में धन लुटाते हैं लेकिन रामलीला के लिए चन्दा देने के नाम पर इनकी नानी मरती है. मंडली के गाँव में मौजूद रहने तक प्रेमचंद की 'रामलीला' के बालक की तरह हमारी दशा रहती थी. लीजिए, विषयांतर हो ही गया.

तो यही पंडितजी 'मौर्यध्वज और ताम्रध्वज' नाटक के दिन राजा मौर्यध्वज बना करते थे. पांडवों के दिग्विजयी घोड़े पर कब्जा होने से क्रोधित अर्जुन कहते-

'रे सठ बालक कालवश वृथा होय क्यों आज?
विश्वविदित पाण्डवों का पकड़ लियो तैं बाज़!'

मौर्यध्वज पुत्र ताम्रध्वज अर्जुन की अहंकार भरी बातों के जवाब में संवाद गाकर पढ़ते-

'बकरी जो मैं-मैं करती है, वह गले छुरी चलवाती है
जब धुनिया रुई को धुनता है, तब तूही-तूही चिल्लाती है.'


इस पूरे प्रसंग के दौरान पंडितजी परदे के पीछे से ताम्रध्वज को प्रोम्प्टिंग करते रहते थे क्योंकि ताम्रध्वज का किरदार उनका भतीजा निभाता था और मंडली में उसके कई प्रतिद्वंद्वी तैयार हो गए थे.

नाटक के अगले दिन हम लोग उनसे ऊपर की लाइनों का मतलब पूछते तो वह बताते- (कृपया ऊपर का बॉक्स मैटर देखें)

उनकी यह व्याख्या सुनकर हम लोग उनके बताये अनुसार पाप शांत करने के लिए अपनी कोपियों में एक दिन में २०० बार राम-राम लिखने का संकल्प लिया करते और कुछ दिन अमल भी करते थे.

आज सोचता हूँ तो लगता है कि लोकजीवन में चीजों की समझ कितनी मौलिक और गहरे तक पैठी हुई है. यह बात दीगर है कि अब मैं न तो स्वर्ग-नरक के चक्कर में पड़ता न ही कर्मफल के. हालांकि यहाँ तक पहुँचने में मुझे व्यक्तिगत स्तर पर भारी मानसिक और व्यावहारिक श्रम करना पड़ा है. लेकिन रामरतन शुक्लाजी की एक बड़े काम की बात अब भी याद रखता हू- 'बकरी जो मैं-मैं करती है....'

मंगलवार, 3 जून 2008

पढ़िये लीलाधर जगूड़ी की 'पुरुषोत्तम की जनानी'


हमारे समय के बहुत बड़े कवि लीलाधर जगूड़ी की यह कविता मैं चाहता हूँ कि ब्लॉगर साथी पढ़ें. 'पहल' के हालिया अंक में छपी यह कविता आजकल चर्चा में है.

जगूड़ी जी से इस कविता को लेकर फोन पर मेरी बात हुई. उन्होंने कहा- "पेड़ तटस्थ समाज का प्रतीक न समझा जाए बल्कि विवश मनुष्यता का साक्ष्य प्रस्तुत करने वाला या आंखों देखा हाल बयान करने वाला एक संवाददाता मात्र भी पेड़ वहाँ नहीं है बल्कि पेड़ एक बहुत बड़े अपराध-बोध से ग्रस्त दिखलाई देता है और वह पुरुषोत्तम की जनानी की आत्महत्या वाले अपराध की जैसे समीक्षा कर रहा हो. यह मरने वाले की और जीने वाले पेड़ की ग्लानि से उत्पन्न कथानक है."

मुझे लगता है कि यह कविता जैसी न लगने वाली कविताई है. हिन्दी में यह नया फिनामिना है. यह बहुप्रचलित शिल्प को तोड़ती हुई कविता है. जगूड़ीजी की कविता का यह नया शिखर है जो अनुभव और अवस्था के साथ माउन्ट एवरेस्ट होता चला जा रहा है. महाकवि पाब्लो नेरूदा की कविताओं में जिस तरह पेड़ आते हैं जगूड़ी जी की कविता में भी पेड़ तरह-तरह से आते हैं और हर बार वे एक नए मनुष्य की भूमिका निभाते दिखते हैं.

जगूड़ी जी चंद कवितायें पिछले दिनों कबाड़खाना में साथी अशोक पांडे ने पढ़वाई थीं. अब पढ़िये यह कविता-

पुरुषोत्तम की जनानी

एक पेड़ को छोड़कर फ़िलहाल और कोई ज़िंदगी मुझे
याद नहीं आ रही
जो जिस समय डरी हो और उसी समय मरी न हो

जिसने मरने का पूरा उपाय रचे जाते देखा हो
और न जी पाने वालों के बाद भी ज़िंदा रहना और बढ़ना न छोड़ा हो
जो न कह पाते हुए भी न भूल पाने का हवाला देकर
फांसी के फंदे की याद दिला देता हो

भले ही ऐसे और जो ऐसे नहीं हैं वैसे पेड़ अंधेरे में भूत नज़र आते हों
पर वे रातों को घरों में
खिड़कियों के सींखचे पार करके आ पहुँचते हैं
और घर की सब चीज़ों को छूकर
नाक से फेफड़ों में चले जाते हैं
और बालों, नाखूनों तक से वापस होकर
रोशनदानों से बाहर निकलकर फिर सींखचों से अन्दर चले आते हैं

वैसे वे पेड़ अंधेरे में भूतों-से और उजाले में देवदूतों-से नज़र आते हैं
कि जैसे अलग-अलग किस्म का दरबार लगाए हुए हों
कुछ उत्पादन का, कुछ व्यक्तित्व की छाया का
कुछ अपने छोटेपन का, कुछ अपनी ऊँचाइयों का दरबार...

पर जो पेड़ खेत किनारे पगडंडी से थोड़ा ऊँचाई पर दिखते हैं
जैसे जन्म से ही सिंहासनारूढ़ हों
भले ही कुछ तो सिपाहियों जैसे दिखते हैं
पर एक जो सयाना-सा बीच में कुछ ज़्यादा उचका हुआ नेता-सा दिखता है
उससे पता नहीं पुरुषोत्तम की जनानी ने
कब क्या और कैसे कोई आश्वासन ले लिया कि बेचारी ने वह योजना
बना डाली
सारे विकल्प बेकार हो जाने पर जिसका नम्बर आता है

पुरुषोत्तम की जनानी द्वारा आत्महत्या के अनजाने कारणों वाली रात से
वह नेताओं वाली शैली में नहीं बल्कि पेड़ वाली खानदानी शैली में
लाश के साथ टूटने की हद तक झुका रहा काफी दिन
जैसे मनुष्य मूल्यों के अनुसार अटूट सहारा देना चाह रहा हो
जो मनुष्य होकर पुरुषोत्तम नहीं दे सका अपनी जनानी को

बकौल लोगों के इस जनानी में धीरज न था
और पेड़ की चुप्पी कहती है कि उसमें उतना वज़न न था
कि टहनी फटकर टूट जाती या इतना झुक जाती
कि मरने से पहले ही वह ज़मीन छू लेती और बच जाती

मकानों में जो घर होते हैं और घरों में जो लोग रहते हैं
और लोगों में जो दिल होते हैं और दिलों में जो रिश्ते होते हैं
और रिश्तों में जो दर्द होते हैं
और दर्द में जो करुणा और साहस रहते हैं
और उनसे मनुष्य होने के जो दुस्साहस पैदा होते हैं
वे सब मिलकर इस टीले वाले पेड़ तक आए थे रात
पुरुषोत्तम की अकेली जनानी का साथ निभाने या उसका साथ छोड़ने
एक व्यक्ति के निजी कर्त्तव्य और दुखी निर्णयों ने भी
अन्तिम क्षण कितनी पीड़ा से उसका साथ छोड़ा था यहाँ पर,
चरमराया पेड़ मारे घबराहट के कभी बता न सकेगा

पूरे इलाके में छह महीने से एक मनुष्य की मृत्यु टँगी हुई है
उस पेड़ पर
जो कैसे और क्यों ज़िंदा रहने पर पछताया हुआ दिख रहा है
मजबूत समझकर पुरुषोत्तम की जनानी ने उस पर फंदा डाला होगा
जो पहली बार डरा होगा उसकी कमज़ोरी और अपनी मजबूती से
कई दिन तक रोज़ जुटने वाली भीड़ के बावजूद उसकी निस्तब्धता तो
यही बताती थी

अब इस पेड़ के सिवा पुरुषोत्तम की जनानी की ज़िंदगी के बारे में
कोई दूसरी ज़िंदगी मुझे फ़िलहाल याद नहीं आती
जो किसी के सामने जिस समय डरी हो और उसी समय मरी न हो...

बाकायदा फंदा डालते हुए उसने
कुछ तो और समय मरने की तैयारी में लगाया होगा
पहले बिल्ली की तरह चिपककर, तने पर वहाँ तक पहुँची होगी
जहाँ से पेड़ चौराहे की तरह कई शाखाओं में बँट गया है
फिर कमर से रस्सी खोलने के बाद टहनी पर फंदा बनाया होगा
तब एक छोर गले में बाँध कर कूदने का इरादा किया होगा
तब सुनिश्चित होकर अनिश्चित में छलाँग लगाई होगी
मरने से पहले कुछ देर पहले वह जीवित झूली होगी

उसकी कोई झिझकी या ठिठकी मुद्रा बची रह गयी हो
तो पेड़ की अंधेरी जड़ों में होगी
आसमान में कहीं कुछ अंकित नहीं है

पता नहीं पेड़ और पुरुषोत्तम की जनानी में जीने के बदले
मरने का यह रिश्ता कैसे बना?
जिस पर मरने वाले के बजाय जीने वाला पेड़ होकर भी शर्मिन्दा है
इसी शर्मिन्दगी में से पैदा होने हैं इस साल के फूल-फल और पत्ते
पर इस देश में वसंत पर शर्मिन्दगी का संवाद सुनने-पढ़ने की परम्परा नहीं है.

(jagoodi ji ka photo: ashok pande ka blog 'kabadkhana' se sabhaar)

रविवार, 1 जून 2008

तुझे सोमरस कहूं या शराब? (अन्तिम)


पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि पैट्रिक एडवर्ड मैकगवर्न ने अपनी किताब 'एनसियेंट वाइन: द सर्च फॉर द ओरीजिंस ऑफ़ विनी कल्चर' में लिखा है कि यूरेशियाई वाइन (अंगूर की खेती और शराब का उत्पादन) आज के जोर्जिया में शुरू होकर वहाँ से दक्षिण की तरफ़ पहुँची होगी. यह किताब प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस से साल २००३ में छपी थी. अब आगे...
'चिकित्सक के लिए औषधियों का वही महत्त्व है जो कि राजा के लिए मंत्रियों की प्रशासनिक संस्था का होता है. जो औषधियों का ज्ञान रखता है, चिकित्सक है और वही शरीर की गड़बडियों को ठीक कर सकता है. मैं कई औषधियों को जानता हूँ जैसे- अश्ववटी, सोमवटी, उर्जयंती, उदौजस आदि.'--- ऋगवेद: अध्याय १०/९७, ऋचा ६,७).'


एकदम आरंभ में किसान जंगली फलों तथा अंगूर से एल्कोहलिक पेय बनाते थे. इन फलों तथा अंगूरों को ग्रीक में वितिस सिल्वेस्त्रिस कहा गया है. लेकिन पेय को संरक्षित रखने के लिए बर्त्तन नहीं होते थे. जब आज से करीब ९००० वर्ष पूर्व नियोलिथिक युग के निकट-पूर्व में मिट्टी के बर्तन बनने लगे तो इन पेयों को सुरक्षित रखना आसान हो गया और शराब उत्पादन को भी गति मिली.

सुमेर में 2750 साल ईसा पूर्व शराब बनाए जाने के प्रमाण मिले हैं. उधर प्राचीनकाल में चीनवासी पर्वती अंगूरों से शराब बनाते थे, लेकिन जब दूसरी शताब्दी में मध्य-एशिया से उन्होंने बजरिये सिल्क-रूट घरेलू अंगूर आयात करने शुरू किए तो चीन में शराब उत्पादन का नया युग आरंभ हो गया.

कहा जाता है कि एकदम आरंभिक काल में जंगली अंगूर उत्तरी अफ्रीका से मध्य एशिया में आते थे. लेकिन शराब बनाने लायक घरेलू अंगूर निकट-पूर्व में सबसे पहले उगाये गए, जो आज के ईरान का इलाका है. यह विवादास्पद है फिर भी इस बात को काफी हद तक माना जाने लगा है कि आर्य ईरान की तरफ़ से आए थे, जिसके कई प्रमाण मिल चुके हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यही आर्य अपने साथ घरेलू अंगूर की कई किस्में लेते आए होंगे. क्योकि वह उनकी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुके थे.

सिंधु सभ्यता में शराब के सेवन का अब तक कोई संकेत नहीं मिला है. अलबत्ता उत्खनन से प्रमाण मिले हैं कि सिंधुवासी मछली का सेवन करते थे. जबकि आर्य दुग्ध, सोमरस और सुरा से परिचित थे. दूध में पकाए गए चावलों की खीर को 'क्षीरणकोदन' कहा जाता था. आर्य भेड़ और बकरी का मांस बड़े चाव से खाते थे. सोम का प्रयोग यज्ञों में होता था जबकि सुरा आम प्रयोग में थी. जाहिर है सोम एक पवित्र पेय था जिसे सुरा से भिन्न किस्म के अंगूरों एवं भिन्न विधि से निर्मित किया जाता रहा होगा. उल्लेखनीय बात यह यह है कि सोम में मादकता नहीं होती थी जबकि सुरा में मदिरा की तरह नशा होता था.

यहाँ दो बातें जहन में आती हैं- एक, गाय-भेड़-बकरी ईरान की तरफ के मूल पशु थे. दो, जिसे हम सोमलता के नाम से जानते हैं वह अंगूर की किसी अनोखी किस्म की लता रही होगी. लेकिन यह निश्चित है कि आर्य अपने समय में वनस्पतियों को बहुत महत्त्व एवं मान देते थे. ऋगवेद में दृष्टव्य है-(कृपया बॉक्स मैटर देखें)
'ये औषधियाँ प्रकृति से मिली हैं. ये पूर्व समय में थीं, हैं और रहेंगी. अपने चिकित्सकीय गुणों के चलते ७०० औषधियाँ सर्वज्ञात हैं. सोम सबसे महत्वपूर्ण औषधि है. हजारों जन इन औषधियों का प्रयोग करके बार-बार लाभान्वित हुए हैं.'-- ऋगवेद: अध्याय १०/९७, ऋचा १,२).

स्पष्ट है कि सोमवटी को कितना महत्त्व दिया गया है. यह श्रेष्ठ औषधियों में से एक थी. इसीलिए इससे बना पेय देवताओं को अर्पित किया जाता था; सामान्यजन को नहीं.

कहने का तात्पर्य यह है कि सोमरस और सुरा जैसे पेय आर्यों के जीवन का अभिन्न अंग थे. नियोलिथिक युग से शराब की जो यात्रा शुरू हुई थी वह आर्यों के जरिये भारतवर्ष तक चली आयी. यह अनंत यात्रा आज भी ज़ारी है. और अब तो शराब के शहस्त्रबाहु एवं कोटिसिर हैं. इसे चाहे जिन नामों से पुकारिये लेकिन यह तय है कि दुनिया में शराब का डंका बजता है और यह आज के बड़े-बड़े इन्द्रों के सर चढ़कर तांडव करती है.

इति श्रीरेवाखंडे अन्तिमोध्याय समाप्तः -- बोलो वृन्दावन बिहारी लाल की जै!

(सनका दिक् मुनि टोटल सनक गए हैं. सुबह-सुबह उठे तो कहने लगे कि दण्डक अरण्य में कुछ दिन सोमरस बनाने की नयी-नयी विधियां ईजाद करेंगे! ताज़ा रपट यह है कि अभी-अभी अपनी लकुटि-कमरिया लेकर प्रस्थान कर गए हैं).

ईश्वर उन्हें शांति दे!

शनिवार, 31 मई 2008

तुझे सोमरस कहूं या शराब? (भाग-२)


पिछली कड़ी में आपने सवाल उठते देखा कि आर्य इसे सोमरस ही क्यों कहते थे? अब आगे...
ईसा पूर्व ८००० ईस्वी तक भिन्न-भिन्न आकारों के भांड (बर्त्तन) बनने शुरू हो गए थे. निकट पूर्व में उत्तरी जाग्रोस पर्वत के हाजी फिरूज़ (तेपे, आज का ईरान) नामक स्थान पर मेरी ए. वोइट ने जब खुदाई की तो वहाँ से उन्होंने दुनिया में पहली बार एक बड़ा जार बरामद किया. इसमें तकरीबन ९ लीटर यानी २.५ गैलन द्रव आ सकता था. मिट्टी का एक मकान था. उसमें ऐसे ५ जार और फराहम हुए जो फर्श पर एक दीवार से सटे रखे थे. यह कमरा किसी रसोईघर जैसा लगता था. इन जारों को तकरीबन ५४००-५००० ईसा पूर्व का आँका गया. इन जारों में पीले रंग की सामग्री चिपकी हुई मिली जिसे प्रयोगशालाओं में गहन परीक्षणों के बाद वाइन करार दिया गया.


सम्भव है इसके सेवन से ऐसे बल का संचार होता रहा हो कि पीने वाला महायोद्धा यहाँ तक कि युद्ध का देवता तक बन सकता था. आश्चर्य नहीं है कि ऋगवेद में इन्द्र को नगरों का नाश करने वाला कहा गया है और सोमरस इन्द्र जैसे देवताओं को प्रस्तुत किया जाता था. तब कहीं इन्द्र येहोवा की परम्परा का वाहक तो नहीं था जो कालांतर में स्वयं एक पीठ बन गया था!

अब हम ज़रा पश्चिम में नशे के आम जरिये वाइन की जड़ें तलाशने की कोशिश करेंगे. आज भी पश्चिमी देशों में व्हिस्की, रम या जिन से कहीं ज्यादा वाइन का सेवन अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है. ध्यान देने की बात यह है कि प्राचीन काल में लोग वाइन और बीयर में फ़र्क करते थे. वाइन काफी पहले ईजाद कर ली गयी थी. प्राचीन ईरान तथा मिस्र से प्राप्त चित्रों में दर्शाया गया है कि वाइन पीने के लिए प्यालों का प्रयोग होता था जबकि बीयर सीधे बैरलों से पतली सटक के जरिये पी जाती थी. मदिरापान अक्सर सामूहिक होता था.

मिस्र में एक परम्परा थी कि वर्ष के प्रथम माह में एक स्थान पर सैकड़ों स्त्रियाँ इतनी शराब पीती थीं कि सुबह तक उनमें से कोई अपनी टांगों पर खड़ी नहीं हो पाती थी. यह विराट शराब आयोजन एक अंधविश्वास के तहत किया जाता था. इस पर यहाँ विस्तृत बात करने से विषयांतर हो जाने का खतरा है.
नियोलिथिक युग(ईसा पूर्व ८५००-४००० वर्ष) तक निकट पूर्व तथा मिस्र की आबादियां स्थायी हो गयी थीं. इसके चलते पेड़-पौधों और घरेलू पशुओं से लोगों का सम्बन्ध करीबी होने लगा. घुमंतू जातियों के मुकाबले स्थायी खाद्य-श्रृंखला और व्यंजन अस्तित्व में आ गए. खाद्य संरक्षण में किण्वन, सोकिंग, पकाना, तिक्त करना आदि विधियां प्रचालन में आयीं. नियोलिथिक लोगों को ब्रेड, बीयर और अनाजों के उत्पादन का आदि मानव-समूह माना जाता है.

प्राचीनकालीन मिस्र में अंगूर की खेती नहीं होती थी. लेकिन फिलिस्तीन से व्यापार के कारण नील डेल्टा में शाही शराब का उत्पादन होता था. वे कांस्ययुग के शुरुआती दिन थे. इसे 'पुराने राज्य' का शुरुआती दौर भी कहा जाता है. बात २७०० ईसा पूर्व की है. तब के फिलिस्तीन में आज का इजरायल, पश्चिमी तट, गाज़ा और जोर्डन शामिल थे. नील डेल्टा में अंगूर की खेती बहुत बाद में शुरू हुई. यहाँ शराब के जार तीसरे वंश के फिराओनों की क़ब्रों में दफ़न किए जाने के प्रमाण मिले हैं. एब्रीडोस की क़ब्रों में ऐसे कई जार मिले हैं.

मेसोपोटामिया में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले का शराब-इतिहास दस्तावेज़ के तौर पर लगभग न के बराबर मिलता है. लेकिन जारों के अन्दर पाये गए द्रव्य के परीक्षण ने यह साबित कर दिया कि ३५००-३१०० ईसा पूर्व के दरम्यान यहाँ का उच्च वर्ग शराब का छककर सेवन करता था. यह सिलसिला उरुक काल के बाद के दौर तक चला. शराब के सिलेंडरों पर मिली शाही सीलों से पता चलता है कि बीयर ट्यूबों में स्ट्राओं के जरिये तथा शराब (वाइन) प्यालों में पी जाती थी, जैसा कि मैंने पहले ही अर्ज़ किया है. यह आज के इराक़ का दक्षिणी इलाका था. पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व के 'father of history' कहे जाने वाले ग्रीक इतिहासकार हेरोडेटस ने लिखा है कि यूफ्रेतस या टिगरिस से लेकर आर्मीनिया के इलाकों में शराबनोशी काफी बाद तक होती थी.

आज के जोर्जिया में भी ६००० वर्ष ईसा पूर्व के जार मिले हैं. यह सुलावेरी का इलाका था. पैट्रिक एडवर्ड मैकगवर्न ने अपनी किताब एनसियेंट वाइन: द सर्च फॉर द ओरीजिंस ऑफ़ विनी कल्चर में लिखा है कि यूरेशियाई वाइन (अंगूर की खेती और शराब का उत्पादन) आज के जोर्जिया में शुरू होकर वहाँ से दक्षिण की तरफ़ पहुँची होगी. यह किताब प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस से साल २००३ में छपी थी.

दूसरा भाग यहीं समाप्त होता है.. इतिश्री रेवाखंडे द्वितीयोध्याय समाप्तः...

अगली पोस्ट में ज़ारी...

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...