गुरुवार, 20 दिसंबर 2007

तलछट-4 : उसके लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है

उसके पिता के पाँव मुड़े हुए थे। वह ज़मीन पर सीधे चल नहीं पाते थे. लेकिन वह हारे नहीं, लगातार दूसरों के जूते चमकाते रहे और उनमें अपनी शक्ल आईने की तरह देखी. उनके बेटे भी इसी राह के राही बने. पन्नालाल तीसरे नंबर का बेटा है. वह भी जूते चमकाता है.

पन्नालाल 'काशी' का नहीं सोनीपत (हरियाणा) के घनाना गाँव का जुलाहा है। जब वह चार-पाँच साल का था तब से ही जिंदगी की चादर बुन रहा है. यह चादर अब भी पूरी नहीं हो पायी है. उसके पिता दीपचंद जब मुम्बई आए थे तब कामकाज की इतनी मारामारी नहीं थी. बांद्रा (मुम्बई का एक उपनगर) के प्लेटफॉर्म नंबर ५ पर ट्रेनों का आना-जाना हुआ करता था. वहीं बक्सा लेकर बैठते थे और 'बूटपॉलिश' करते थे. गाँव में मेहनत का काम उनके वश में नहीं था. पैरों से लाचार जो ठहरे. इसीलिए मुम्बई आना पड़ा था.

गाँव में भी सिर्फ़ कहने के लिए एक मकान था. ज़मीन एक इंच नहीं थी. इसकी वजह यह थी कि पुश्तैनी पेशा था कपड़ा बुनने का. लेकिन मशीनों पर बुने कपड़े के सामने हाथ के काते कपड़े को कौन पूछता? फ़िर उनकी पीढ़ी के हाथ से यह हुनर ऐसा निकला कि किसी तरह न लौट सका.

दो जून की रोटी मुहाल होने लगी तो पन्नालाल और उसके भाई भी माँ के साथ मुम्बई चले आए। पिता बहरामपाड़ा के रेलवे गेट नंबर १८ के सामने रज्जाक सेठ की चाल में रहते थे. माँ मुसलमान लड़कों के साथ खेलने, उठने-बैठने से रोकती थी. लेकिन शायर कहता है-

'परिंदों में कभी फिरकापरस्ती क्यों नहीं होती.
कभी मन्दिर पे जा बैठे, कभी मसजिद पे जा बैठे.'


पन्नालाल बांद्रा तालाब के पास एक स्कूल में पढ़ने जाने लगा था। भाई भी जाते थे. सबसे छोटा वाला चौथी फेल होने के बाद लोकल ट्रेनों में घूम-घूम कर पॉलिश करने लगा. पिता ने पहले तो बड़ा गुस्सा किया लेकिन घर में कमाई का छोटा ही सही, एक और हाथ जुड़ने से उन्हें भी तसल्ली हुई. अब उनका जी भी नहीं चलता था. यह १९६७ का साल था.

तालाब के बगल वाली स्कूल से छूटने के बाद पन्नालाल पिता का साथ देने बांद्रा के प्लेटफॉर्म पर कभी-कभार आ बैठता था। कुछ ही दिनों में उसका भी हाथ साफ हो गया। इधर पांचवीं कक्षा के बाद उसका मार्शलिंग यार्ड के रेलवे स्कूल में दाखिला हो गया था। पिता ने अफसरों के हाथ-पाँव जोड़कर यह काम करवाया था. उन्हें बड़ी ललक थी कि पन्ना पढ़ ले. चारों लड़कों में उसका दिमाग पढ़ाई में सबसे अच्छा था. पन्नालाल ने सातवीं यहीं से पास की.

बड़ा भाई मनीराम आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ चुका था और परेल की एक दूकान में रेडियो के कल-पुर्जे सुधारता था. पन्नालाल की जिंदगी भी इसी दिशा में सरक रही थी लेकिन एक शिक्षक की कृपा उस पर बरसी और उसे बिना फीस दिए तुलसी हिन्दी माध्यमिक विद्यालय परेल में दाखिला मिल गया. आठवीं से आगे की पढ़ाई यहीं होनी थी. लेकिन यह हो नहीं सका.

हुआ यह था कि पिताजी बूटपॉलिश करने वालों की यूनियन में शामिल हो गए थे। कोई विवाद हुआ और इन्हीं दिनों यूनियन वालों ने उन्हें निकाल दिया. यूनियन से निकालने के बाद अब बांद्रा प्लेटफॉर्म पर बैठने की इजाजत नहीं थी. भायखला स्टेशन भागना पड़ा. यहाँ दूसरी यूनियन ने सदस्य बना लिया और फिर वही सिलसिला शुरू हो गया. इसी यूनियन ने माटुंगा और दादर रेलवे स्टेशन के अड्डे भी दिला दिए. बस, पन्नालाल की पढ़ाई का सिलसिला यहीं से बिखर गया. तीनों भाई जूता पॉलिस के तीन अड्डे संभालने लगे.

ख़ुद पन्नालाल की इच्छा थी कि किसी ख़ास हुनर का प्रशिक्षण ले। लेकिन अब जूता पॉलिस से फुरसत नहीं थी. भायखला की चाल में सुबह तीन-चार बजे के बीच उठना पड़ता था. फिर पानी भरने के झगड़ों से निबटने के बाद संडास की लम्बी लाइन में पेट पकड़े खड़ा रहता होता था. फिर नहा-धो कर दादर स्टेशन भागना पड़ता था. रात ग्यारह बजे तक तरह-तरह के जूतों का स्वागत करना कर्तव्य बन गया था. ऐसे में पढ़ाई का सपना टूट गया. अब पन्नालाल को सपनों में भी जूते नज़र आते थे.

''यूनियन का तो ऐसा है कि एक बार आपने अड्डा छोड़ा तो अगले ही दिन दूसरा आदमी हाजिर कर देते हैं। इसीलिए लोग मर जाने के बाद ही अड्डे छोड़ते हैं. आजकल तो ऐसी हालत है कि बीए-एमए पास लड़के भी प्लेटफॉर्म पर जूता पॉलिस का अड्डा पाने के लिए जान देते हैं'.-- बताता है पन्नालाल. वह चर्मकार को-ऑपरेटिव प्रोड्यूसर्स सोसाइटी का सदस्य है. उसे 'परिचय पत्र' भी मिला हुआ है.

मैं उसे पिछले १० सालों से भायंदर रेलवे स्टेशन पर अड्डा जमाते देख रहा हूँ। जूता पॉलिस का उसका कैरियर अब ४० सालों का हो गया. कई घाम-शीत-वर्षा-बसंत उसने मुम्बई के रेलवे स्टेशनों पर लोगों के जूते चमकाते गुज़ार दिए हैं. पन्नालाल कहता है- 'अब तो मुझे हर पॉलिस कराने वाले की शक्ल एक जैसी नज़र आती है.'

मुझे धूमिल का 'मोचीराम' याद आ जाता है-

'रांपी से उठी हुई आंखों ने मुझे क्षण भर टटोला
और फिर जैसे पतियाये हुए स्वर में वह हंसते हुए बोला-
बाबूजी, सच कहूं तो मेरी निगाह में
न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है
और असल बात तो यह है कि वह चाहे जो है, जैसा है, जहाँ कहीं है,
आजकल कोई आदमी
जूते की नाप से बाहर नहीं है....

2 टिप्‍पणियां:

  1. मुंबई में ही रहता हूं। लेकिन यहां के जूता पॉलिश करनेवालों की ज़िंदगी आपसे जानी। धन्यवाद।

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